ऐ बसंती हवा, मैं तुझे क्या नाम दूँ?
पागल कहूँ या वन-ए-बावरी, तुझे क्या पयाम दूँ?
ऐ बसंती हवा, मैं तुझे…
बड़ी ही चंचल, बड़ी ही संदल, ऋतुराज सुकुमारी तू,
शीतलहर जब थम के बैठी, चढ़ती रसिक खुमारी तू,
जब देखे तू सूरज लाली, चले चाल मतवाली तू,
पूरब के तू द्वार से होकर, शीतल लहर बहाती तू,
कुसुमाकर के कुसुम सुहाने, भरते मधु-घट, कलसियाँ,
मधु-घटों के स्वाद कण कण भरती, बड़ी ही प्यारी तू...
एक जगह न कभी तू रुकती, कौन गली है तेरी आली?
कभी तू बैठी बरगद-बागड़, कभी तू बैठी आम की डाली,
बूढ़े पात से करे हैं कुस्ती, युवा कोपलों से की मस्ती,
तितली, भँवरे संग तू खेली, पुष्प-कुसुम, चरवाह-ए-बस्ती।
जब तू मिलती नदिया-पोखर, लहर-नहर के राग में हँसती
जब तू लिपटी गगन-पताका, बनी देखते तेरी हस्ती।
अब तू निकली खेत डगर को, हरी चादरें तूने उढ़ाई,
जब तू झगड़ी पेड़ विटप से, कसरत उनकी खूब कराई,
फिर तू भागी महुआ बागन, कोयल के सुरमयी थे रागन,
कोयल का रसगान चुराके, मादक इत्र संग तू लायी।
अब तू पहुंची बाग बगीचा, जहां बिछा था पात गलीचा,
चीर गलीचा भागी सरपट, शैतानों की तू है माई,
तेरे करतबों की, मैं तुझे क्या मिसाल दूँ?
नटखट कहूँ या मस्तमौला या डांट तुझे तमाम दूँ,
बेफिक्र कहूँ या बेखौफ कहूँ मैं, या लाख तुझे सलाम दूँ?
ऐ बसंती हवा, मैं तुझे क्या नाम दूँ?