Note :- यह कविता मेरी बहन ‘खुशबू’ को समर्पित है, वह अब इस दुनिया में नहीं है।
भोर होते ही पहला प्रश्न होता 'रेणु' कहाँ है ?
पक्षियों की तरह कलरव करती
गांव के लोग जागते भी नहीं थे कि,
वह कोयल सी कूकती, पहेलियाँ बूझती
गुनगुनाती हुयी, कुछ अस्पष्ट पंक्तियाँ
पेटकुइयां चलती चली आती थी।
नीरस जीवन से स्वतंत्र स्वच्छंद,
किस्से कहानियों की आदी।
कंधे की ऊंचाई तक की खटिया से उतरकर
बिना किसी सहारे, पहुँच जाती इठलाने,
थोड़ा गुदगुदाने नींद से जगाने
जब करवट बदलकर देखता उसे
तो लगती हाथ पैर चलाने।
देर सुबह उठता तो देखता
पूजा-पाठ में लगी है माँ के साथ
प्रभु में उसकी अपार श्रद्धा के आगे
बौनी प्रतीत होती हमारी भक्ति।
यह प्रेम उसका, निश्छल निस्वार्थ
गंगा की तरह पवित्र था।
निडर भी कम न थी
मैं कभी बिना डंडे के गोशाला नही जाता
और उसके हट्ट के आवाज से ही
गाय खूंटे पर पहुँच जाती,
प्रेम इतना कि कभी गाय के नाक में ऊँगली
तो कभी बछड़े से आलिंगन करती थी।
पर अब ऐसा कुछ भी तो नहीं रहा।
रेणु तू कहाँ है,
"रेणु" कहाँ है ?