नयननीर को बना रोशनाई
तुम्हारा नाम लिख रहा हूँ,
दहकते अंगारों कर सफर की
दास्ताँ लिख रहा हूँ,
यूँ तो मुनासिब नहीं जग को बतलाना
कल्पित अश्क को गढ़ सुर्ख स्याही
तुम्हारा नाम लिख रहा हूँ।
जिस महबूब को लिखे
खत कभी साँझ की पुरवाई में
उसी महबूब के दिये जख्म का
हिसाब लिख रहा हूँ।
यूँ तो मेरे जख्मों का
मरहम नही इस जहाँ में
महबूब के दिये जो फ़लसफ़े
उन्ही के नाम लिख रहा हूँ।
तुम्हारे हर सवाल का जवाब था मैं
आज तुम पर ही फ़रामोश का
इल्जाम लिख रहा हूँ,
मैं वाकिफ़ इस खबर से
तुम अभी बेगानों की
महफ़िल की रोशनी हो
मगर मैं आज की ये सर्द शाम
तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
किताब की हर ज़िल्द पर लिखा तेरा नाम
आज वही दुर्नाम लिख रहा हूँ
मुझे भी तलाश रही थी
उम्रभर साथ चलनेवाले हमनफस की
मगर देखो ख्वाब-ओ-अंजाम
तजुर्बे का कच्चा रहा मगर
आज उसको बेहिसाब लिख रहा हूँ।
शायद कुछ अनजाना था
शायद कुछ बेगाना था
दिल का अमीर मुक्कदर का गरीब
यही मेरा फ़साना रहा था
तुम कश्ती बीच समंदर छोड़ लौटे
मैं बैठा समंदर किनारे बनाने खुद को लगा
इंसान ढूंढ रहा हूँ
तुम लौटे बीच राह से थे
मगर मैं साथ तय सफर की
दास्ताँ लिख रहा हूँ।