जलाकर पंख फूंककर हवस
तुम सोचते हो बुझा दोगे मेरी उड़ान
मैं हौंसले के अंगार में तपी एक रचना हूँ
जिसके हर फ़लसफ़े पर है
दृढ़ इच्छा की मुहर
तुम सोचते हो उड़ेलकर तेजाब अय्याशी का
मिटा दोगे मेरा वज़ूद
ये तन तो महज छलावा है
राख बन उड़ जायेगा एक रोज़
पर आत्मबल से उपजा तेज मेरा
चीर अम्बर का सीना
छन-छन कर बिखरेगा जो इक रोज़
उससे गर्वित होगा ये समाज
तुम सोचते हो लूट आँचल का सम्मान
झुका पाओगे उठी नज़रों का गुमान
मैं छुई-मुई की डाल नहीं जो छूते ही मुर्झा जाऊँ
मैं कोरों की कालिख नहीं जो अश्कों में ही घुल जाऊँ
मैं बदली का चाँद नहीं जो कट्टर दहाड़ से छुप जाऊँ
मैं स्वामिनी हूँ अतुल्य कोख़ की
मैं जननी हूँ सम्पूर्ण जगत की
ऐ, लगाम से छूटे घोड़े थम जा
कहीं ऐसा न हो ! मैं धारा की विपरीत दिशा में बह जाऊँ
धर रूप चण्डिका का प्रलय का रस-पान कर जाऊँ
और तुम्हारी अंधी-कामना को
इतिहास में दफ़न कर जाऊँ