ज़िन्दगी की रात क्यों इतनी लम्बी हो गयी
नींद भी आई मगर , आँख जल्दी खुल गयी
करवटें बदलते रहे तख़्त पर लेते हुए,
ख्वाब पर था अब्र काला हर घडी बैठे हुए।
फिर उठे बैठे रहे इस इंतज़ार मे,
की सुबह की एक रोशनी हमको भी मिलेगी कभी,
सब भूल कर जब याद किया ईश को दिल से,
एक रोशनी दिखी और आँख खुल गयी।
पर अब तलक था अंधकार मेरे रूबरू,
लगा की वो भी कोई खेल खेल रहा है
इस इंतज़ार मे कुछ दोस्त बन गए,
तन्हाई और ख़्याल उनके नाम थे।
की गुफ्तगू फिर देर तक दोनों के साथ मे,
बातें की बड़ी देर तक दोनों के साथ फिर
जब सुबह को देखा तो डर सा लगने लगा
लगा की लौट आये वो रात और वो दोस्त,
अकेले तो ना रहूंगी कम से कम दिन भर।