इंसानों की इस बस्ती में, इंसानों ने ही मोल ना पाया

इंसानों की इस बस्ती में , इंसानों ने ही मोल ना पाया, 
पत्थरों को भगवान् बनाकर , चार दीवारों में छुपाया,
भूल गए हम, खुले आसमानों में उड़ने वाले उस पंछी को भी ईश्वर ने बनाया।

फल, फूल , दूध , दही का चढ़ावा उस पत्थर को चढ़ाया,
इंसानों की भूख भूल गए हम, जिसको उसी ईश्वर ने बनाया।

इन पत्थरों के नाम पर हर दिन का एक रंग बनाया ,
भूल गए हम इस संसार के हर एक रंग को उस ईश्वर ने बनाया।

पत्थरों से बनी उस देवी को, कपड़ो, गहनों से सजाया,
भूल गए उस औरत का सम्मान जिसको उस ईश्वर ने बनाया।

पथ्थरों का धर्म बनाकर , उस इंसान का खून बहाया ,
भूल गए हम इस इंसान को एक सा उस ईश्वर ने बनाया।

इंसानों की इस बस्ती में इंसानों ने ही मोल न पाया,
पत्थरों की पूजा करते करते, ईश्वर के बने उस इंसान ने,
अपने अन्दर के इंसान को ही गंवाया।
 


तारीख: 15.06.2017                                    सुरभि चॅटर्जी









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है