जीवन का खेल खत्म होते ही
मंच से उतरकर
हम अपने अपने निवास पर
लौट जाएंगे।
रिश्ते-नाते यह सब
हमारी अदाकारियाँ हैं
गिर जाएगी पर्दा
खेल के खत्म होते ही
उन सब पर...
गुब्बारें बनकर उड़ते रहेंगे
हमारी 'किरदार'
यादों के गलियारों में !
कहाँ कैसे चुके हम
अपनी अदाकारी में
मूल्यांकण करते रहेंगे
पटकथा के निर्देशक
दर्शकगण !
मस्तिष्क की दीवारों से
झाँकती रहेगी
तमाम अतृप्त-अपूर्ण वासनाएँ।
हमारी कमियाँ
खलती रहेगी अफशोस बनकर
कहीं किसी
पदचाप पर
इसी तरह चलती रहेगी
यथावत
जीवन का खेल
पता नहीं
कब हम कहाँ
किस किरदार
निभा रहे होंगे !