जीवन का खेल

जीवन का खेल खत्म होते ही
मंच से उतरकर
हम अपने अपने निवास पर
लौट जाएंगे।

रिश्ते-नाते यह सब
हमारी अदाकारियाँ हैं
गिर जाएगी पर्दा
खेल के खत्म होते ही
उन सब पर...

गुब्बारें  बनकर उड़ते रहेंगे
हमारी 'किरदार'
यादों के गलियारों में !

कहाँ कैसे चुके हम
अपनी अदाकारी में
मूल्यांकण करते रहेंगे
पटकथा के निर्देशक
दर्शकगण !

मस्तिष्क की दीवारों से
झाँकती रहेगी
तमाम अतृप्त-अपूर्ण वासनाएँ।

हमारी कमियाँ
खलती रहेगी अफशोस बनकर
कहीं किसी
पदचाप पर

इसी तरह चलती रहेगी
यथावत
जीवन का खेल

पता नहीं
कब हम कहाँ
किस किरदार
निभा रहे होंगे !


तारीख: 09.04.2024                                    वैद्यनाथ उपाध्याय









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