जीवन की इस अधूरी कहानी मे
दौड़ती भागती जिंदगानी मे
वक़्त नहीं था कुछ कहने का
कुछ पल तनहा रहने का
भूली यादों में खोने का
नए सपने संजोने का
दो पल साथ हसने का
उन राहों पर चलने का
जहां लुक्काछिप्पी खेले थे
जब न ये झमेले थे
अब कैस करे इस कहानी का अंत
पार हो गए कितने बसंत
अब आँखें धुंधला गयी है
वो यादों धुल खा गयी है
काश पहले निकाला होता वक़्त
आज लिखते इसका सुन्दर अंत