क्षेत्रपाल

 

सूखी धरती की देख दरारें
भृकुटी पर बन गयी मेरी धराये।
नित नवीन चिन्ता में रहता हूं
सब सहता हूँ चुप रहता हूँ।
सलिल की एक बूँद की खातिर
नित मेघों को निहारता रहता हूँ।
समझ बिछौना वसुन्धरा को
अम्बर के नीचे रहता हूँ।
रज की खुशबू धर ललाट
मैं चन्दन तिलक समझता हूँ।
धरती का सीना चीर मैं उसमे फ़सल उगाता हूँ
अपने स्वेद से सींच उसे मैं जीवन्त बनाता हूँ
यूँ ही नही मैं धरा पुत्र,क्षेत्रपाल कहलाता हूँ।।


तारीख: 01.11.2019                                    अभिषेक शुक्ला









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