लाल बत्ती पर
मैं ठहरा हुआ हूँ,
ऑटो की ढकी हुई छत के नीचे
आधी रात सी शांति,
पर बाहर ट्रैफ़िक का शोर
मधुमक्खियों के छत्ते-सा गूँजता है।
छोटे गोल से आईने में
दिख रहा है मेरा अपना चेहरा—
थका हुआ, चिंतन में डूबा,
आगे blinkit की डिलीवरी करने ,
बेचैन भागता वो मोटरसाइकिल सवार
सामने एक “PhonePe” का स्टिकर,
जो नयी तकनीक की दस्तक जैसा
सफ़र का हिस्सा बन गया है।
काँच पर जमी हल्की धूल,
मद्धम पीली रोशनी में
चमकती मानो सितारों की किरचें,
और मैं सोचता हूँ—
क्या हमारी राहें भी ऐसी ही
धुँधली हसरतों में
टिमटिमा रही हैं?
ऑटो का ड्राइवर
सिग्नल की सुइयों पर नजर गड़ाए है—
अपनी परेशानियों को
ठीक उसी तरह थामे हुए,
जैसे हैंडल पर उसकी उंगलियाँ
तेज़ी से हर पल
किसी 'हरे' वक़्त की कामना करती हैं।
लाल से हरा होने की
इस कुछ सेकंड की देरी में
कितना कुछ चल रहा है—
मेरे ज़ेहन में,
शहर के भीतर,
ड्राइवर के घर में,
और इस “Volvo” के शीशों के उस पार
खड़े अजनबियों के मन में।
सुर्ख़ रौशनी
ऑटो के भीतर की नन्ही दुनिया में
एक इंतज़ार का रंग भरती है—
अगला पल
शायद आगे बढ़ने का संकेत होगा,
या हो सकता है
ज़िंदगी की गाड़ी को
फिर कोई दूसरा इशारा मिल जाए।
इस क्षण में
आईने का अक्स मुझे देखता है—
माना कि मंज़िल तक पहुँचना है,
पर ये ठहराव भी ज़रूरी है,
शायद अपने आप को
थोड़ी देर महसूस करने के लिए,
अपने अंदर के शोर को
धीमे से सुनने के लिए।
सिग्नल हरा हुआ—
इंजन की घुरघुराहट
फिर से जीवन पाती है,
और ऑटो
ट्रैफ़िक की बयार में
घुल-सा जाता है।
मेरा चेहरा
उसी आईने में
अब चलती रोशनी के साथ
थोड़ा आश्वस्त-सा दिखता है,
जैसे आगे बढ़ने का कोई
छोटा-सा आश्वासन
फिर से ज़िंदा हो गया हो।