माँ अब मैं बोलूंगी

माँ मैं जब पैदा हुई तुम बहुत खुश हुई
तुम्ही ने मुझे पहला शब्द
माँ बोलना सिखाया

थोई बड़ी हुई भीड़ देखकर
डरने लगी तुम आगे आई
मेरा हाथ पकड़कर लोगों से मिलना सिखाया 
तुम्ही ने मुझे कविता बोलना सिखाया

पर अचानक क्या हुआ
कि तुम्ही ने मुझे कहना शुरू कर दिया 
अब बड़ी हो गयी हो कम बोला करो 
माँ तुमने मेरे शब्दों को मूक कर दिया

फिर तुम कहने लगी
तुम्हे  पराये  घर जाना है  
माँ तुम सही थी यह पराया ही घर है
यहाँ कोई मेरा अपना नहीं है 

आज माँ मैं खामोश हूँ
शब्दहीन हूँ,लाचार हूँ
ख़ामोशी ही मेरी जुबाँ बन गयी है

आज पता चला कि
जिस परछाई से मैं बचपन में डरती थी
आज वह परछाई मेरी हमसफर बन गयी है

सब कुछ है माँ
दुनियादारी के हिसाब से मैं खुश हूँ 
नहीं है तो इज़्ज़त, आदर,सम्मान
जिसकी जरूरत मुझे अभी साँसों से ज़्यादा अनुभव होती है

माँ पर आज मैं खामोश 
नहीं रहूंगी सीख लिया है जवाब देना
कभी कभी ‘नहीं’ को भी स्वीकार करुँगी
‘हाँ’ को मौन स्वीकृति नहीं बनने दूँगी
अपने कल्पना के पंखों को फैलाकर माँ
मैं धीरे धीरे अब उड़ना सीखूंगी
            


तारीख: 02.07.2017                                    डॉ विनीता मेहता









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