एक मजदूरिन अपने छोटे से
शिशु को साथ लेकर ,
चल पड़ी है अलसुबह
औज़ार अपना तेज कर I
जा रही है वह वहाँ ,
ऊँचा सा जहाँ प्रासाद है ,
मन में एक उमंग है
और हृदय में आह्लाद है II
साथ में छोटी सी पोटली को
है बगल में वो दबाये ,
लेकर तगारी माटी भरी
चलती है मस्तक पर उठाये I
बच्चा बिलखता भूख से जब
पोटली को है उठाती ,
कर्म का प्रसाद है जो वो ,
रूखा सा भोजन है खिलाती II
फ़िर धोती की कंछाड़ मार
पिल पड़ी वह काम पर ,
हाँफती जाती है वो
मजदूरिन जो है स्वेद तर I
जिससे ठेकेदार की नज़रों में
बेचारी आ सके ,
इसी ज़गह पर कल भी
कोई काम छोटा पा सके II
इतने में ठेकेदार युवा
दाढ़ी को खुजलाता आता है ,
“ अरी पगली ! तू रुखा खाये
यह तनिक मुझे नहीं भाता है I ”
कहकर यह दो टूक
देख उसे मुस्काता है ,
दृष्टि चुभाता अंग –अंग पर
काम भाव दिखलाता है II
वह बेचारी मजदूरिन
अपनी पुरानी चीर से,
जो कई ज़गह से तार –तार है
शायद लोगों के कुदृष्टि तीर से I
जिसमें लगे ज़गह –ज़गह पैबंद हैं
जिसमें लाज़ उसकी आज भी पाबंद है ,
जिसे तन से आज भी है वो लपेटे
लाज़ जिसमें आज भी मजदूरिन है समेटे II
सुनकर ये सब बात उसका
स्वाभिमान आहत हुआ ,
जैसे किसी ने अनजाने में
फूल समझ अंगारा हो छुआ I
चल पड़ी वो क्रोध में
लेकर कुदाला ,
जिससे दे सके वो शाम को
उस नन्हे शिशु को निवाला II
है खड़ी वो कतार में
काम को समाप्त कर ,
दिख रही प्रसन्नचित्त
पचास रूपये प्राप्त कर I
गिन रही है बार –बार
आँखों में एक सपना सजाये ,
अपने धूलि –धूसर बालक को
कैसे वो ‘ बाबू साहब ’ बनाये II
चल पड़ी घर की तरफ़
लकड़ी का गुरू गट्ठर उठाकर ,
जिससे दे सके रोटी –प्याज वो
टूटे से चूल्हे को जलाकर I
साथ में नन्हा शिशु
चलता मिलाकर लघु कदम ,
दिखलाना चाहता है मा को ,
मैं भी नहीं दुःख सहने में कम II
घर पर पतिदेव जब
मधुशाला से लौटे आते हैं ,
हैं नशे में धुत और
कदम भी लड़खड़ाते हैं I
किसी भी छोटी सी
गलती की प्रतीक्षा में घात कर ,
दिखलाता रोज पुरुषत्व वो
मजदूरिन पर आघात कर II
अब उग चुका है चाँद
सूरज भी कर रहा आराम है ,
पर बिलखती मजदूरिन को
आराम भी हराम है I
सोचती सपने में भी
सुबह कितना सारा काम है ,
उस बेचारी मजदूरिन का तो
जीवन ही एक संग्राम है II