पाओं फैला बचपन मे खिड़कियों पर,
घंटो बैठा करते थे।
देकर हाथ बाहर बारिश में,
माँ से छिपकर पूरा भींगा करते थे।
फेंकती थी हवाएं बूंदे चेहरे पर,
हम आंखे मूंदे, बूंदे सींचा करते थे।
बदन आधे गीले, आधे सूखे
मन पूरा गिला करते थे।
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आज भीग गया दफ्तर से आते,
कपड़ो से टपक रहा है पानी,
मैं खड़ा हूँ आकर खिड़की पर,
मन अब भी सूखा है।