अंर्तमन के भू की हलचल
बर्दाश्त नही कर पाया है,
ढह चुकी हर एक इमारत
जाने किसने इसे बनाया है,
समय-समय इन झटको का
ये अब आदी हो चुका है,
मन ये अब थक चुका है||
उङान की कोइ आशा नही
पंखो की भी अभिलाषा नही,
जिनसे अब तक अंजान हो ये
ऐसा कोई तमाशा नही,
खाकर चोट दिन रात हर वक्त
खुद को ये खो चुका है,
मन ये अब थक चुका है||
आवाज कई कैद है इसमे
करते हैँ सवाल सभी,
जवाब भी कई कैद है इसमे
पर नही जवाब सवालो का सभी,
जाने पहचाने इन आवाजो से
ये परेशान हो चुका है,
मन ये अब थक चुका है|
जब चला है
पगडंडियोँ पे चला है,
निरस्त होकल गिर पङा है
क्योँकी रास्तो का छला है,
खाली पाँव चलते चलते
घाव तलवो का पक चुका है,
मन ये अब थक चुका है||
जाने कहाँ डोर है इसकी
ढुंढे कभी छोर तो कोइ,
खुल जायेंगी सारी परते
बैठकर ले बटोर कौइ,
बंधा हुआ इन डोरो मे
हर जोर निरर्थक हो चुका है,
मन ये अब थक चुका है||
मन ये अब थक चुका है||