मेरे अँधेरे मन में दीप जलाए कोई ,
बैठा हूँ आस लगाए अब तो आए कोई ,
देख लिया स्याह रंग बहुत,
श्वेत भी अब दिखलाए कोई।
मेरे अँधेरे मन में दीप जलाए कोई,
देख है छल-कपट, घृणा, ईर्ष्या,
लोभ, अहम और पाप बहुत,
अब तो सत्य की राह दिखलाए कोई,
मृग ये भटक चुका वन उपवन कई,
कस्तूरी की सुध अब तो बतलाए कोई।
मेरे अँधेरे मन में दीप जलाए कोई,
डर-डर कर जी चुका हूँ बहुत,
अब तो खुल कर जीना सिखाए कोई,
पिंजङे में बंद पंक्षी को भी,
खुला आसमान दिखलाए कोई।
मेरे अँधेरे मन में दीप जलाए कोई,
थक चुका हूँ हाथ पैर मारकर बहुत,
अब तो तैरना सिखाए कोई,
इससे पहले की डूब ही जाऊँ मझधार में,
मांझी तो पार लगाए कोई,
कही अँधेरा ही न बन जाए पर्याय जीवन का,
इससे पहले कोई आए तो सही,
मेरे अँधेरे मन में दीप जलाए तो सही।