मुझे मालूम है चाँद को जलाते हो

शाम ढले तुम छत पे क्यूँ आते हो
मुझे मालूम है चाँद को जलाते हो

तुम से ही नहीं रौशन ये जहाँ सारा
मुस्कुराकर तुम उसे यह बताते हो

होंगे सितारे तुम्हारे हुश्न पर लट्टू
गिराके दुपट्टा ये गुमाँ भी भुलाते हो

हुई पुरानी तुम्हारी अदाओं की तारीफें
रोककर सबकी साँसें उसे जताते हो

अमावस का डर भी तो है उसे पल-पल
तुम बेधड़क जलवा रोज़ दिखाते हो

कर दे वो रातें सबकी काली,कोई फर्क नहीं
खिलखिला के तुम दो जहाँ  जगमगाते हो


तारीख: 18.08.2019                                    सलिल सरोज




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