नन्ही सी अभिलाषा

देखकर मुझे क्यों मूंह मोड़ लेते हो,
हाथ तेरा थामती हूँ तो क्यों छोड़ देते हो।
मेरी कुंठित व्यथा को सुनो, मैं भी एक इंसान हूँ,
पापा जी, मैं भी तो आप ही की संतान हूँ।।

मैं तो कभी भी नई खिलौने नहीं माँगती,
मेले में जाने की जिद भी नहीं बांधती।
घर का जूठा खा कर भी झाडू-पोछा कर लेती हूँ,
आत्मचित्कार, माँ की दुत्कार खामोशी से सह लेती हूँ।।

इस नादान से विह्वल मन की
बस इतनी ही अभिलाषा है।
ह्रदय से भर के गले लगा लो
छोटी सी दिल की आशा है।।

बेटा जो भी कर सकता है,
मैं भी वैसा काम करूंगी।
कसम खुदा की, जग में एक दिन
रौशन आप का नाम करूँगी।।
इस समाज की घृणित प्रथा को देखकर मैं हैरान हूँ
पापा जी, मैं भी तो आप ही की संतान हूँ।।    


तारीख: 15.06.2017                                    गोपाल मिश्रा









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