पलायन

गांव का वो सूना आंगन जिससे तुम मुंह मोड चले
पल भर भी तो ना लगा, तुम शहरी चादर ओढ़ चले
खुले है किवाड़ , हर दिल के द्वार, तुमसे रखी उम्मीद अपार
पर तुम तो अनजानी राह पर अनजान हो घर छोड़ चले ।

तुम्हे गए हुए है बस दिन चार, और सन्नाटा मार रहा फुफकार
हवा से लड़ते वो खिड़की के पल्ले लगा रहे तुमको पुकार
बुझती उन आंखो से एक टक वो मोड निहार रहा दुआर
जिन गलियों को तुम छोड़ चले अब ना होंगी फिर से गुलजार ।

मुरझा गए है हर फूल ऐसे, जैसे तपन से जला गया हो बुखार
तेरे हाथ के दानों का था उन गौरैयों को भी दरकार
क्या इतना आसान था गांव से ' पलायन ' ?
या पहली नजर में हो गया था तुझे शहर से प्यार?

 


तारीख: 21.03.2024                                    रुद्रस्तक पांडे









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है