मानव,
ध्यान से देख इस नन्हें से जीव को
जिसने तेरे अहंकार के कर दिए प्राण पखेरू
जिसे,
दंभ था अपने सर्वशक्तिमान और अजेय होने का
वो आज कहीं दबा हुआ, छुपा हुआ बैठा हैं
उसने,
तुझे केवल एक आंकड़ा, एक संख्या बना दिया
तू उड़ रहा था आकाश में, घुटनों पर ला दिया
ज़नाब,
कालचक्र के इस परिदृश्य ने क्या खूब रंग दिखाये
धरती, अम्बर, धरा के सारे जीव वापस लौट आएं
तू,
जो जा रहा था प्रकृति के हर नियम को तोड़ता मरोड़ता
कि देख तू आज भी उसके सामने वही आदिमानव समान हैं
ये,
ना किसी को छोटा, ना बड़ा, सबको बराबर ही तो तौल रहा
फिर इंसान क्यों करता भेदभाव धर्म, पैसे और रंग के नाम पर
जब,
दस्तूर था कि उसकी सारी रचनाएं हो एक समान
फिर भी कोई भूखा सो रहा, क्यों कोई है बिन मकान