हम सब
अपनी सहूलियत के परदों में
इस कदर छिपे हुए हैं
कि
हर नई चुनौती
हमें मज़बूरी लगती है
हम अभ्यस्त हो गए हैं
बासी ज़िन्दगी जीने के लिए
जिसमें ताज़ा कुछ भी नहीं
ना ही साँस और ना ही उबाँस
हमें तकलीफ होती है
जब रोज़मर्रा की लीक से
कुछ अलग हो जाता है
और
हमें अपनी ही कूबत पर
शर्म आने लगती है
और
कई बार हैरानी भी होती है
कि
क्या हम सचमुच
इंसान कहलाने के लायक भी हैं
जिसका धर्म है परोपकार
जब कि
आज इंसान खुद की सहायता नहीं कर पा रहा है