फिर कागज पर
शब्द बह रहे हैं,
लेकिन वे उसके हो जाना,
नही चाह रहे।
मैं कारण ढूंढने को पहले
कागज को महसूस करती हूँ उंगलियों से,
कागज की सतह बेहद चिकनी है।
उंगलियां फिर लफ्जों को
टटोलती है, मिन्नते करती है,
पर वे जबरदस्ती ठहरना नहीं चाहते,
उन्हे लगता है,
इस चिकनाई पर उनकी मौजूदगी
सिर्फ एक कोशिश बन कर रह जाएगी,
वहां लिखे होने की,
वे खो देंगे अपना अस्तिव ,अपना अर्थ।
मैं अब इस रिसाले को ही
बदलना चाहती हूँ,
इसमें खुरदुरे से पन्ने जोड़ना चाहती हूं
क्योंकि लगता है जीवन मे
जद्दोजहद की जमीन पर अनुभवों की तरह
अर्थपूर्ण सहज शब्दों के
जज्ब होने के लिए
सतह का खुरदुरा होना भी
बहुत जरूरी होगा।