इक से तुम यूँ नयन मिलाती, दूजे का करती आलिंगन |
चंद्र-कला सा प्रेम तुम्हारा, बनता-मिटता जो है प्रति-क्षण ||
मद-मोह लोभ से वंचित रहता, निर्मल इस का दर्पण |
निस्वार्थ भाव का त्याग है ये, नहीं हो सकता अर्पण ||
स्नेह नहीं तृष्णा का स्वामी, स्नेह नहीं वैभव का दास |
स्नेह नहीं कोई कुटिल लालसा, स्नेह नहीं अतृप्त प्यास ||
यह चिरा-शून्य आयाम-हीन , यह अगणित अमिट अविनाशी है |
यह स्वार्थ-रहित, यह कलुष-हीन, यह मक्का है यही काशी है ||
सब धर्मों से श्रेष्ठ धर्म , यह महा-पंडित ज्ञानी है |
सब रत्नों से परिपूर्ण, यह गंगा-जल का पानी है ||
इस के सम्मुख मानव बौना , बौनी उस की काया है |
इस के सम्मुख ईश्वर बौने , बौनी उन की माया है ||