स्त्री और दर्पण

रंग बिरंगै पोशाक पहन मैं दर्पण पे इतराई थी
मुड़ मुड़ कर बार बार अपनी आभूषण उसे दिखाई थी
समझ समझ कर मन ही मन हर एक की भाव बताई थी
पर रहा वह जस का तस ये बात समझ ना आई थी

क्षण बीता, बीते कुछ पल
आभूषण के बोझ का मैं ढूँढने लगी हल

उसकी कोशिश फिर से रिझाने की रही विफल
ख़ुद की अस्तित्व फिर से पाने मैं रही थी मैं सफल

हर एक आभूषण को कर के दूर
खुद को चाहने लगी प्रचुर

मंद मंद मुसकान के साथ बोली ए दर्पण हूजुर
सादगी को ना पहचानने का था मेरा कसुर

दर्पण बोला....

जीवन तन है, धन है इसकी कर्मठता
द्वेष भाव से निर्वित होकर ही आयेगी तुम मैं गुणवत्ता

देख मुझे तुम, रोशनी पा कर हुँ चमकता
अँधियारे मैं चाह कर भी ख़ुद को नहीं दुंढ पाता

चाहत के ओझलपन से निकलने की तेरी बारी हैं
मृग तृष्णा की लालसा मैं सीता राम को खोयी हैं

मृग तृष्णा की लालसा मैं सीता राम को खोयी हैं
चाहत के ओझलपन से निकलने की तेरी बारी हैं


तारीख: 15.10.2017                                    सोरभ






रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है