सुनो कभी इस तरह मुझको

सुनो कभी इस तरह मुझको,
की कोई ख़्वाहिश न रहे;
लिपट के समेट लो मुझको यूँ;
की कोई आजमाइश न रहे।।

लापता है मेरे वाकिफ़ लोग  न जाने क्यों
वो देखते है यूँ कि कोई फ़रमाइश न रहे;
कभी करीब आकर,तो कभी दूर  जाकर,
ऐसे निहारते है ऐसे कोई गुंजाइस न रहे।
सुनो कभी इस तरह मुझको ,
की कोई ख्वाहिश न रहे।।

आसमां की तरफ देख तो लूं मगर
सब्र टूट जायेगा;भ्रम छूट जायेगा।
अपनेपन के रिश्ते से गिरी रूठ जायेगा;
कुछ रिश्तों में कभी आजमाइश न रहे ;
सुनो कभी इस तरह मुझको,
की कोई ख्वाहिश न रहे।।


तारीख: 21.06.2017                                    गिरीश राम आर्य









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है