उत्तर से दक्षिण की ओर

उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते,
पीछे छूटता गया साफ आसमान
और घेरते गये बादलों के झुंड,

ये बादलों के वही झुंड थे,
जो घर लौटते वक्त
मैंने आंखों में भरे थे,

(मेरे संपूर्ण जीवन भर का 
यह दूसरा सबसे सुंदर दृश्य था,
क्योंकि प्रथम तो मेरी माँ का मुख ही हैं) 

वापस लौटते वक्त यही झुंड,
आंखों में चुभते रहे
और मुंह चिढ़ाते रहे,

मानो अनमने से स्वागत करते रहे
किसी अनचाहे मेहमान का,

शायद कहते रहे कि इनकी चकाचौंध
ये बोझिल आंखें नहीं सह पाएंगी,

कि ये भीड़ से तर दुनिया 
इन आंखों के लिए नहीं है.

तब मैंने जीवन से जुड़ी एक और 
महत्वपूर्ण कड़ी का अनुभव किया,

कि जैसे प्रेम और कविताओं की 
परिभाषा असंभव है,

ठीक वैसे ही सुंदरता को 
परिभाषित करना भी संभव नहीं है,

हृदय ने जब चाहा जिसे चाहा
सुंदर कर दिया,

और जब हृदय ने नकार दिया 
तब आंखो ने बंद होकर 
स्वयं ही पलायन कर लिया।


तारीख: 12.04.2024                                    रिया प्रहेलिका









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