उत्तरायण - पतंग

"सिसक रही है पतंग बंद कमरे में
खूटी पे  लटके मंझे को रोते देखा हैं
सिकुड़ते आसमा में अब वो उड़ नही पाती
तारो के जालो में सद्दी को खोते देखा है 

वो छत जहां से करीम चाचा
उसे छुडइयां देते थे, 
अब एक मुसलमा की हों गयी है,
गली जहां से अली पतंगे 
जम कर लूटा करता था
बड़े से मंदिर में खो गयी हैं

फिजा में घुल गया है
नफरतो का धुआं
पतंग इस अंधेरे से नहीं लड़ पाती है
उड़ाने वाले हाथ बहुत बेईमान बहुत मैले हैं
वो अब "आनन्द" से हवा पर नहीं चढ़ पाती है" ||


तारीख: 28.01.2018                                                        आनन्द त्रिपाठी






नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है