विरह

विरह वो ही नहीं जब, आखो से ओझल हो गए थे हम
ह्रदय में अनेकानेक भावो ने तब भी बंधा हुआ था हमे

विरह वो भी नहीं था जब एक देश में थे तुम और एक देश में हम
हमारी आत्माओ ने हमे एक दूसरे से तब भी सांझा किया था

विरह वो भी नहीं कहलायेगा
जब पारिवारिक मज़बूरी में दूरियां आ गयी थी हममे
अंतर्मन में तुमने तब भी मुझे थमा हुआ था

विरह वो भी नहीं है जब हमारे विचारो में टकराव के कारण
हम दूर दूर रखने लगे थे खुद को,
क्युकी वो वो तो हमारे रास्तों का फर्क था मंजिलो का नहीं

विरह है आज। 
विरह की पीड़ा का आभास
आज होता है बहुत प्रिये
आज एक दूसरे के सामने होकर भी, 
हमारे दिलो में अविश्वास की गहरी खाई है

विरह है आज, जब हमारे अंश को महत्व न देकर हम
हमने भीतर के दंश को प्रेम करते हैं
विरह है आज, जान हज़ारो शब्द समूह भी हमे
एक दूसरे की बातें समझा नहीं पातें हैं

विरह की अग्नि तेज लगती है आज
जब हमे जबरन जोड़ा है समाज के डर ने
और जगह बची ही नहीं दिल वाले घर में

हाँ प्रिये, आज में विरह की पीड़ा में कराह रही हूँ,
और पहचान रही हूँ, यही है विरह।


तारीख: 17.11.2017                                    पुष्पा जोशी









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