ये जंग हमें लड़नी होगी

बेशक मैंने गीत सुनाए थे सावन की सुंदरता के
बेशक मैंने चूड़ी की खनखन से प्रीत सजाई थी
बेशक होठों को कह डाला था प्याले मैंने मय के
बेशक मैंने नयनों की उपमा मृग से कर डाली थी।
 
लेकिन अब आंखों के आगे जलता देश दिखाई देता
मासूमों के चेहरों का अब उड़ता रंग दिखाई देता
तरुणाई के सपने टूटे,  अरमान बुजुर्गों के भी लूटे
रहबर बने यहां रहजन तो किसको शोर सुनाई देता। 

अब भी इन हालातों से गर सीख नहीं हम पाए तो
आने वाली नस्लों को कीमत इसकी भरनी होगी
इसीलिए मैं आवाहन करता हूं वीरों सपूतों का
जिन्दा हो तो जाग उठो, ये जंग हमें लड़नी होगी...

कब तक खामोशी से यूं ही बैठ तमाशा देखोगे
कब तक इन सरकारों का ये झूठ दिलासा देखोगे
कब तक इन मक्कारों को चुनकर भेजोगे सदनों में
कब त‍क अपने ही पैसों का रोज घोटाला देखोगे।

मुट्ठी भर बेइमान हांकते सवा अरब की जनता को
छीन निवाला भूखों का, अपने भंडार हैं भरते वो
सत्ता के गलियारों में धंधेबाजों का हल्ला बोल
पर दुि‍खया की कुटिया में दो वक्त की रोटी नहीं कुबूल। 

अब न जगे तो सो न सकोगे, ि‍फर मेरे भारत वालों
उठो धरा ने तुम्हें पुकारा लोकतंत्र के पहरेदारों
बुझती शम्मा में आशा की लौ हमको भरनी होगी
जिन्दा हो तो जाग उठो, ये जंग हमें लड़नी होगी...

जिनके हाथ अस्मिता सौंपी, सोन चिरैया लूट गए
देश में हाहाकार मचा और दिल बेचारे टूट गए
मजहब के ठेकेदारों ने जी भर ईश्वर को लूटा
और सियासत के गलियारों में मन का मंदिर टूटा।

ऐसा राज चला तो ि‍फर एक रोज गुलामी आएगी
गोरी और गजनी घुस आएंगे, सत्ता हमसे छिन जाएगी
पहले घर में बैठे इन गद्दारों का संहार करो
जयचंदों से कुर्सी छीनो, देश का बेड़ा पार करो। 

वक्त अभी भी है, गलती से सीख हमें लेनी होगी
भारत मां की लाज बचाने को, कुर्बानी देनी होगी
शैतानों की बस्ती में हुंकार ‘सहज’ भरनी होगी
जिन्दा हो जाग उठो, ये जंग हमें लड़नी होगी...


तारीख: 10.06.2017                                    अभिषेक सहज









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