वह
रोज सरकारी दफ्तर के
चक्कर लगाता था।
चपरासी को पच्चीस ,
बड़ा बाबु को सौ ,
और साहेब को टेबल के नीचे
न जाने कितना पकड़ाता था।
बेटे के भेजे मनीआर्डर,
परचून की दुकान के बकाये में,
माटी काटने का मेहनताना,
मकान के किराये में,
कुछ यूं अपना गुजारा
चलाता था।
बेटी की शादी में;
घर के जेवर,
बेटे की पढाई में,
मकान,
बीवी के इलाज़ में,
पुरानी साईकिल की दुकान।
सब बिक गये।
सरकारी पेंशन
चपरासी के समोसे,
बड़ा बाबु के पेट्रोल और,
साहेब के अल्कोहोल।
जो बचे थे,
वो यमराज की खोल।
ये कैसी माटी, ये कैसे मोल।
इन्सान की जय, ईमान की जय।
हिन्दुस्तान की जय।।