कुछ सत्य जिन्हें हम कह नहीं पाते
वो यथार्थ जो सह नहीं पाते
जाने कितने दर्द समेटे
वो आँसू जो बह नहीं पाते
कुछ आशाओं की पंखुड़ियाँ
खिलने से पहले बिखर गयीं
नन्हीं सी कोई अभिलाषा
झंझावातों से सिहर गयी
कुछ बचपन मुरझाये से
अपना अल्हड़पन खो बैठे
बन गये मुखौटे कुछ चेहरे
मन का दर्पण खो बैठे
ना जाने क्यूँ, कैसे,
अक्सर ऐसा ही होता है
है ना ये सब कड़वा सच
हाँ, सच तो कड़वा ही होता है
आखिर कब तक?
आखिर कब तक, एक दिन तो
इस अन्धकार को मिटना होगा
तू श्रम के कंकड़ उठा
हाथ पर रेखाओं को खिंचना होगा
मानव, अपना भाग्य यहीं पर
तुझको ही लिखना होगा
जो छिपा बीज में अंकुर बन,
वो वृक्ष धरा पर दिखना होगा
लगता तो है सपना सा
लेकिन यह भी सच होता है
हो इच्छा-शक्ति प्रबल
तो हर एक प्रयास सफल होता है