रात्रि अमावस की है काली
हर वर्ष मानते हम दीवाली
कृत्रिम दीपों की माला से
किंतु तमस कब मिटने वाली
सच्चाई की ज्योति जलाकर
अंतर्मन से तमस भगाएँ
ऐसा कोई दीप जलाएँ
एक लौ अबला बेचारी
क्षुद्र देह, रातें अंधियारी
किंतु लड़ती रही वो तम से
यद्यपि कई बार है हारी
आओ लड़कर अन्यायों से
उस लौ का हम मोल चुकाएँ
ऐसा कोई दीप जलाएँ
एक कुटुम्ब संपूर्ण धरा-जन
क्यों ना मिलते फिर सबके मन
एक समृद्धि की छाँव में बैठे
दूजे नैनों में अश्रु-कण
अपना घर सब करते ज्योतित
हम संपूर्ण सृष्टि सजाएँ
ऐसा कोई दीप जलाएँ
ऐसा कोई दीप जलाएँ