न जाने कब चला जाये ये बर्फ की चादर ओढने

गुमनाम था जब तक न कोई आंधी चली थी सामने
सुनसान था वो रास्ता जिसमे चला था मैं कभी
सहारे आंधियों के छू लूँ मैं अब वो आसमा
न जाने कब कहर जाये वो बादल मैं चला जिसे था थामने

अब लिपट कर आग भी मुझसे लगी है कराहने
लपट में जला था जिसके मैं फिर कभी
सिमट जाये न जमी की ये सारी उर्वरा
बरस लूँ आज मैं धधक कर अब इन्ही के सामने

यूँ ही पड़ा था मैं कहीं अपने ही जिगर को बांध के
अब लहू के बांध को मैं खोलता हूँ प्राण से
रगों में दौड़ते रहने के आहट को मैं सुनना चाहता
न जाने कब चला जाये ये बर्फ की चादर ओढने
न जाने कब चला जाये ये बर्फ की चादर ओढने ...!!
 


तारीख: 15.06.2017                                    सौरव सिंह









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