मेरे मेहबूब तु हुस्न-ए-बहार ही सही
महकता तुम्हरा जिस्म मेरे राख से है
मुझे बांध भले जज़्बातों के तारो से तू
सिसकता तुम्हरा रूह मेरे इश्फ़ाक़ से है
तेरे आग़ोश में है जो मेरे क़फ़स का क़र्ज़
वो रौशनी तुम्हारे मेरे जलते ख्व़ाब से है
मुझे दफ़ना देना किसी अँधेरे गर्द में अब
चीखें तुम्हारे कान में मेरे गिर्दाब से है
राजेश कुट्टन “मानव”
*क़फ़स= शरीर
*इश्फ़ाक़ = दया,
*गिर्दाब= भंवर, बवंडर