होली तो होली

रोली, मोली, बोली, होली तो बस होली! लठमार होली से पहले जितने लठ चलने थे वो भी चल चुके। कई तो वादा किसी से करके, चुनाव के बाद  किसी और दल की होली । रंग भंग,उमंग भी निपट चुका है। टी.वी पर बस जंग बची है।या हिजाब- किताब चल रहा है। ईद के बाद टर्र है। चुनावी डिबेटकर्ता फ्री होकर गला साफ कर रहे हैं। हारे हुए योद्धा टी. वी से गायब हैं। कुछ परमानेंट डिबेट मास्टर विलुप्त प्रजाति में शामिल हो रहे हैं। दर्शक उनकी शेरो -शायरी पर ताली ठोकते रहते थे ,या वो जबरदस्ती ताली ठुकवा लेते थे। अब वो खुद ठुके पिटे बैठे हैं। न तालियां हैं न गालियां हैं। 
        चुनाव भी निपट चुके हैं। चुनावों में जिनको निपटना था, वो भी निपट निपुट के झाग की तरह बैठ चुके हैं। अब पंचायत का चुनाव तो लड़ने से रहे। हां ! कभी कभार ऐसे हो जाता है कि चुनावी जंग में लुढ़के हुए दिग्गज सीधे गवर्नर बन जाते हैं। कई तो खुद डूबे साथ साथ पूरे बेड़े को ही ले डूबे। जिनकी बननी थी, उनकी  सरकारें बन चुकी हैं। टैंट, झंडे व डंडे वाले पार्टियों के दफ् तरों के आगे बकाया पेमेंट के लिए मुंह बाए,धरना दिए बैठे हैं। अब जिनकी नै ्यया ही डूब गई है वो पेमेंट करेंगे क्या ?
     कुछ इन्नोवेटिव हलवाई,  कभी अपने हरे रंग के लडडू देख रहे हैं ...कभी ग्राहकों को । ग्राहकों ने अभी तक पीले लडडू ही खाए थे। हरे देख कर शक सा हो जाता है। ढोल ओेैर बैंड वाले कभी घाटे में नहीं रहते। चुनाव परिण्णम कैसा भी हो। जो अपना बूथ तक न बचा पाए हों, जमानत जब्त हो चुकी हो और पूरी जिंदगी का बैंड बज चुका हो, बैंड मास्टर उसके प्रतिद्धन्दी का बाजा बजा कर अपने पैसा वसूल लेता है। ढोल वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन जीता कौन हारा.....मतदाता नाचना शुरु कर देते हैं। बाजे और ढोल वाले ऑन द स्पॉट अपने पैसे वसूल कर लेते हैं।
        रैलियां भी तकरीबन ओवर हो चुकी हैं । रैलियों का अपना मजा था। फ्री में दिल्ली -विल्ली की तफरीह हो जाती थी। किसान भी आंदोलन बीच में लटकने के बाद नई प्लानिंग में बिजी हैं। अब करें तो करें क्या? इस आन्दोलन के बहाने भी हम, कभी ठीकरी तो कभी किसी अन्य  बार्डर की सैर कर आते थे। पिकनिक सी हो जाती थी।
     ऑन लाइन ,ऑफ लाइन हो चला है। स्कूल खुल गए हैं। हमारे एक मास्साब रिटायर होने की कगार पर हैं। उन्हें एक ही दुख रहा कि इतनी लंबी सर्विस में इतने गंदे दौर से कभी नहीं गुजरे। एमरजेंसी में भी नहीं। उनका रोष है कि ऑन लाइन पढ़ाना भी कोई पढ़ाना है लल्लू! हाथ खुजलाते रहते हैं। किसी छोरे का कान तक हाथ नहीं आया। मुर्गा बनाना तो बहुत दूर की कौड़ी है। हाथ बार बार, पास रखे डंडे की तरफ बहक जाते हैं। उंगलियां ,की बोर्ड से डंडे की तरफ फिसल जाती हैं। जो सकून छात्रों की पिटाई में ऑफ लाइन है वो ऑनलाइन में कहां? भला हो कोरोना महाराज का कि स्कूल खोलने की इजाजत दे दी है। कम से कम रिटायर होने से पहले उन शरारती तत्वों से तो निपट ही लेंगे जो ऑनलाइन क्लास में अचानक ऑफ लाइन हो जाते थे।
परन्तु यह हिन्दुस्तान है प्यारे! यहां ज्यादा देर तक सन्नाटा नहीं टिकता। न दिल्ली में न टी वी पर!


तारीख: 13.03.2024                                    मदन गुप्ता सपाटू









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