ठुकाई- पिटाई

 हमारे एक मित्र मास्टर रामलाल पिछले 10 सालों से कोर्ट में पेशियां भुगत रहे हैं। उनका कसूर बस इतना ही था कि एक कान्व्ेंाट स्कूल में सोशल स्टडी के पीरियड में उन्होंने एक साहिबजादे से भारत के नार्थ- ईस्ट स्टेट के एक राज्य की राजधानी पूछ ली। बड़े लोगों के बड़े बेटों में से एक ने जिसे अभिभावक आई .ए.एस बनाना चाहते थे, इस प्रशन के जवाब में , दक्षिण भारत के एक नगर का नाम बताया। मास्साब ने बस उसके  कान हल्के से गर्म कर दिए। मास्टर जी के अगंेस्ट एफ दृआई. आर! स्कूल के गेट पर पेरेंट्स एसोसियेशन का धरना प्रदर्शन। अखबारों में बालक के कान का क्लोज अप। प्रशासन का डंडा प्रधानाचार्य पर और मास्साब परमानेंटली घर पर!
 उनका यह स्टेटस देखकर हमारे मन में - ‘बचपन के दिन भुला न देना’  गाना बजने  लगा। हमें पहले तो 5 सितंबर याद आया । मास्साब की हालत देख कर शिक्षक दिवस के समारोह याद आए। फिर ग्यारहवीं कक्षा तक ठुकाई , पिटाई, कुटाई खड़काई, रगड़ाई के सीन याद आए।  छोटी क्लास में पहाड़े गा गा कर याद कराए जाते थे। न कुर्सी थी न टेबल और न आज की तरह टू -टू जा फोर का टेबल का टन्टा ही था। बस दो दूनी चार होता था। टुटवां पहाड़े सुनाने में कोई गलती हो जाती तो मुर्गा बना कर ,हमारी ही तख्ती से हमारा ही पिछवाड़ा प्लेन कर दिया जाता। तब से आज तक दूनी का तो छोड़ो, स्वाए, पौने ,डयोढ़े, हूंटे तक के पहाड़े कंस्ठथ हैं।
हमारे एक टीचर , अपने एक हाथ से हमारा एक कान पकड़ते, दूसरे से बड़े प्यार से  गाल की मालिश करते। जब मजा आने लगता तो ताड़ से एक झापड़ पड़ता और गाल पर ज्वांएट पंजाब का नक्शा कुल्लू से दिल्ली तक का छप जाता  ओेैर एक ही झापड़ से गाल पापड़ बन जाता ।
  कुटाई , पिटाई, ठुकाई, खड़काई, रगडाई , खिंचाई ,घिसाई आदि  हमारे सिलेबस के ऑप्शनल नहीं बल्कि कंपल्सरी सब्जेक्ट थे जो बिना नागा होते थे। शोर एक बच्चा मचाता, सजा पूरी क्लास को मिलती। जैसे पुराने सैनिक तलवार बगल में सजाए चलते थे ओेैर बाद में गन लेकर चलने लगे, ठीक वैसे ही हमारे मास्टर जी हर वक्त डंडा साथ लेकर चलते । यह उनकी पहचान के साथ साथ एक स्टेटस सिंबल होता। मुर्गा बनना एक योगासन था। बंेच पर खड़े होने की सजा मिलना एक इम्युनिटी बूस्टर था। हमें लम्बाई बढ़ाने के लिए कोई टॉनिक  नहीं पीना पड़ता था। बस ! किसी न किसी छोटी मोटी गलती पर मास्टर जी गर्दन पकड़ कर हवा में लहरा देते थे। कानों को चाबी का तरह घुमाना एक्युप्रेशर होता था। स्कूल का ग्राउंड साफ करते कराते जिम में एक्सरसाइज करने के बराबर ही था जहां बड़े बड़े पत्थर उठा कर इधर से उधर रखने पड़ते थे।
पंजाबी वाले ज्ञानी जी खुुशखती पर पूरा जोर देते। हमारी ही पेंसिल हमारी ही उंगलियों में ऐसे दबाते कि नानी याद आ जाती। आज भी हमारा हैंडराइटिंग ऐसे है जैसे छपे हुए अक्षर। कान का एक्यूप्रेशर ऐसा करते कि भूले हूए सारे फार्मूले मंुह से खुद ब खुद निकलने लगते। कुछ अहिंसावादी अध्यापक भी थे जो स्वयं थप्पड़ नहीं टिकाते अपितु यह शुभ काम साथ वाले लड़के को थमा देते। जब वह यारी दोस्ती में थप्पड़ जड़ने में लिहाज कर जाता तो एक्जाम्पल के तौर पर उसके ऐसा झन्नाटे दार रैपटा पड़ता कि वह अपने लाल गाल का बदला एक्शन रिएक्शन के फार्मूले के आधार पर लेता।
अपन लोगों के कान, गाल, पिछवाड़ा अक्सर लाल ही रहता। घर वाले खुश रहते कि पढ़ाई - ठुकाई ठीक ठाक चल रही है। यानी हमारे गाल ही हमारी पढाई की डेली रिपोर्ट होती थी । कुटाई -ठुकाई दैनिक दिनचर्या थी। स्कूल से बचते तो घर में ठुकते। यानी यह सिलेबस का अभिन्न अंग थी। ठुकाई भाग्य रेखा मंे ही लिखी हुई थी। खेलते खेलते भाई लड़ पड़ता तो उसकी शिकायत पर मां धुनाई करती। चप्पल, पापा का जूता, थापी, हमारी ही तख्ती आदि आदि हमारी माता जी के अस्त्र शस्त्र होतेे। यदि खुदा न खास्ता, पिता जी का टाकरा मास्टर जी से कहीं बाजार में हो जाता और मास्टर जी ने सुबह सवाल गलत होने पर ठुकाई की होती तो घर में पिता जी एक बार फिर एक्शन री प्ले कर देते। यदि खेलते खिलाते किसी से लड़ाई में चोट लग जाती तो दवाई से पहले कोर्ट मार्शल होता, बाद में दवा दारु। गली मोहल्ले में कोई ताई ,दाई, चाची, मंुहबोली बुआ कोई शिकायत कर देती तो बिना एक्सप्लानेशन के ठुकाई पिटाई के बाद पूछा जाता कि हुआ क्या था!
बड़े होने पर समझ आया कि हमारे मां बाप हमारी ठुकाई पिटाई में इतने एक्सपर्ट क्यों थे। उनके जमाने में सब कुछ ठोक पीट कर ही होता था । उनका मानना था कि सोना आग में तप कर ही कुन्दन बनता है। चांदी कूट कर ही वर्क बनती है। धान को मूसल से कूट कर ही चावल निकलता है। कपड़े थापी से पीट कर ही निखरते हैं। चटनी सिल बटट्े पर रगड़ कर ही स्वाद बनती है। अदरख सोटी कुंडे में ही  कूट कर फलेवर देती है। कोई भी तेल कोल्हू में ही पिस कर ही निकलता है। कनक को पीट पीट कर ही निकाला जाता है। अब कूटने पीसने का काम मशीनों न ले लिया है। मसाला मिक्सी में ही पिसता है।
यही कारण है कि ओलम्पिक मे मेडल लाने वाले गाय का दूध पीते, चटनी वटनी खाते, खेत में खेलते बड़े हुए। हम किसी कंपनी का प्रोडक्ट ख पीकर बड़े नहीं हुए । हमारी इम्युनिटी का एक मात्र राज हैे, बचपन में हमारी हमारी  ठुकाई, पिटाई, खड़काई, रगड़ाई, पिसाई, धुनाई......... ।


तारीख: 15.03.2024                                    मदन गुप्ता सपाटू









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