आज भी जब सुरेश किसी व्यक्ति को गाते हुए देखता है तो स्तब्ध खड़ा देखता ही रह जाता है जैसे वह भूल गया हो कि आसपास क्या चल रहा है , जीवन मे परेशानियों का अंबार लगा पड़ा है फिर भी स्वतः ही एक मुस्कान चेहरे पर आ जाती है |
व्यक्ति अपने अधूरे सपनों की तरफ इस तरह लालहित रहता है कि किसी दुसरे को अपना पसंदीदा काम करता देख खुद को उस व्यक्ति मे महसूस करने लगता है इससे उसमे बची कुची व्यथा को थोड़ी शांति मिलती है और बेचैन मन राहत का अनुभव करता है |
सुरेश के मन मे भी गायक बनने का ख्वाब कभी तो रहा ही होगा | इसी कारण काम करते करते भी गाने गुनगुनाते तो रहता है और काफी सारे गानो के बोल तो जुबानी याद है उसे| मालूम हुआ कि सुरेश का तो कोई ऐसा सपना था ही नहीं कभी से |
साधारण परिवार मे जन्मा था जिसे हम मिडिल क्लास कहते है वैसे भी जनाब मिडिल क्लास वालो के सपने होते ही कहाँ है, वहाँ तो बस शिक्षा और शिक्षा से नौकरी प्राप्त कर लेना ही लक्ष्य होता है | वह भी ऐसा लक्ष्य जो आसपास की परिस्थितियो को देखकर बच्चा खुद तय कर लेता है कि पढ़ना है क्योंकि उसी से नौकरी मिलेगी और उसी से समाज मे सम्मान मिलेगा |
यही कमी है शायाद इस व्यवस्था की कि इसने शिक्षा को केवल नौकरी पाने का साधन बना दिया है , अपनी इच्छा क्या है , किस काम मे मन लगता है , किस काम से स्ंतुष्टि मिलती है ये सभ बाते मात्र क्षणिक विचार के रूप मे आती है और उन पर ध्यान नहीं दिया जाता है |
शायद सुरेश के साथ भी ऐसा ही था उसने कभी इस बात को जानने की कोशिश ही नहीं की कि उसे संगीत पसंद है | उसे गाना अच्छा लगता है | अगर वह संगीत के क्षेत्र मे होता तो उसे अपना काम बोझ न लगता और जो चेतना किसी गाते व्यक्ति को देखकर उठती है वह शांत हो चुकी होती |
सपने पुरे करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है उनके पीछे भागना पड़ता है | पर इसे क्या कहा जाये जब कोई उन सपनों को देख ही नहीं पाये जिन्हे लेकर वह उत्साहित है तो इन्हे सपने कहना सही नहीं होगा ये दबी ख्वाहिशे है | हाँ ये ख्वाहिशे वक्त रहते सपना और सपना कोशिश से लक्ष्य और लक्ष्य मेहनत से मुकाम मे तबदील हो सकता था |
सुरेश की आँखो मे दिखी व्याकुलता बार बार समाज की उन परिस्थितियो की ओर ध्यान आकर्षित कर रही थी जो दबी ख्वाहिशों को मारने मे परंपरागत हो चुकी है | सरकारी विद्यालयों की बदहाली और शिक्षण व्यवस्था पर ध्यान जा रहा था जिसमे बचपन से लेकर आठरह साल के होने तक क्या सही प्रयास किए जाते है ? जिनसे एक बालक अपनी प्रतिभा और इच्छाओ को जान सके या केवल वही लकीर के फकीर की तरह सभी कच्ची मिट्टियों को एक ही तरह के साँचे मे ढालने का प्रयास होता है | जिक्र सरकारी विद्यालयों का ही इसलिए आ रहा है क्योंकि इसके विपरीत बहुत अच्छे समृद्ध विद्यालयों मे तो ऐसी व्यवस्थाएँ है और साधन भी पर जब मिडिल क्लास की बात आती है तो वह तो इन्ही सरकारी या कम सुविधा सम्पन्न व्यवस्थाओ मे अपने आप को परिपक्व करता है |
संगीत , नाटक , नृत्य मंचन कला इन क्षेत्रों की प्रतिभाए तो यूं ही अपनी ख्वाहिशों को पहचाने बिना ही दम तोड़ देती होगी और जो साधारण परिवेश से निकलकर इन क्षेत्रों मे मुकाम पा जाती है उनका जीवन संघर्ष देखे तो अन्य समृद्धो से काफी ज्यादा होता है | फिर भी अनुपात जो ये दर्शाता है कि कला के क्षेत्रों मे हमारे निम्न और मध्यम वर्ग की संख्या क्या है |मन मे व्यथा उत्पन्न करती है |
सच्चाई से इंकार किया नहीं जा सकता कि कई सुरेश होगे जो आज तक अपनी दबी ख्वाहिशों को कभी समझे ही नहीं होगे और सुरेश की ही तरह ऑफिस मे कलम रगड़ते होंगे |बेमिसाल बात तो यह है कि ख्वाहिशों का ये अंजानपन कब और कैसे दबता है इससे भी विमुखता देख मेरी बेचैनी चरम पर थी | सुरेश अब तक मेरी मनोस्थिति से अंजान मुझे ऐसे देख रहा था मानो मेरी कुलबुलाहट का कारण जानना चाह रहा हो |
अब उससे क्या कहता , गालिब की कुछ पंक्तियाँ दिमाग मे आयी उन्हे ही दोहरा दिया कि
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले