जब एक साथ तुम रहते थे, उस सघन कुटुम्ब की छाया में |
घुट घुट के इस तम में, मुद्रा को कमाकर क्या पाया ?
घर से निकले थे तब तुम कुछ अल्हड से बेफिकरे थे |
दुनिया की इस खुदगर्ज़ी में, खुद को दफनाकर क्या पाया ?
वो बड़े वाहन वो बड़े भवन, क्या बुझा सकी अंदर की अगन |
गाँवों से तो भाग गए, शहरों में बसकर क्या पाया ?
वो चलचित्र वो देहदर्शन, क्या यही तुम्हारा अन्तर्मन |
मन तुच्छ होता चला गया, काया चमकाकर क्या पाया ?
निज स्वार्थ बस तुम आकर्षित थे, उन ऊँचे ऊँचे लक्ष्यों से |
तन खोया मन खोया, अपनों को भुलाकर क्या पाया ?
आराम से जीना चाहते थे, तुम अपना निलय बनाकर |
स्वस्वप्न विवश उस आँगन में, क्षण भर विश्राम कहाँ पाया ?