आज कल धूप भी
बडे तमीज़ से
निकलती है
घने पेड़ों के झुरमुटों
से झांकती
पत्तों में छुपती
झुमते शाखों से
फिसलती हुई
मेरे आंगन में
अपने सुनहरे
एक पांव रखती
बडे अद़ब से
जैसे पुछती हो
मैं, पुरी आ जाऊं..!
याद है मुझे
जब हम छोटे थे
गांव जाया करते
तो धूप पुरे
खेतों खलिहानों में
विस्तार से पैर जमाती
धूप की फैली ताव
गेंहूं और बाजरें की
बाली पर चमकती
अब तो हम शहरी हैं
और वही धूप जैसे
छोटी होती जाती है
दीवारों से सटे घर के
किसी के छज्जे से
गिरती फिसलती
खिड़कीयों से झांकती
दीरारों के बीच
कोनों में सिमटी
एक पतली सी रेखा में
अस्ताचल को लौट जाती