माँ और चिड़िया

चिड़ियों को देख मैं
बचपन में माँ से
अक्सर सवाल करता-
बिना हाथ-पैर के ये पक्षी
कैसे बुनते हैं इतने अच्छे घोंसले?
माँ अक्सर मुस्कुराते हुए कहती-
'अपनी मेहनत और लगन से'

कुछ समय बाद
चिड़ियों ने छोड़ दिया घोंसला
और मैंने अपना घर
दाना पानी की तलाश में।
फिर,
शहर की भागदौड़...
न तो मुझे वो चिड़िया याद आयी
न ही उसका घोंसला
और न ही याद आयी माँ...

सोचता हूँ,
कितनी समानता थी
चिड़िया और माँ में
चिड़िया घोंसले बुनती थी
बिना हाथ-पैर के
और संसाधनों के बिना माँ
बुनती रही मेरा भविष्य
'दर्जी थी माँ'
सिलती रही पूरी ज़िंदगी
कटी-फटी मेरी किस्मत
कपड़ों के साथ-साथ।
चिड़िया उड़ जाती भोर में
नन्हें बच्चों के भोजन की तलाश में
उठ जाती माँ भी सुबह चार बजे
और चलाने लगती सिलाई मशीन
चिड़िया चीं चीं करती
और मशीन खट खट।

चिड़िया लगाती थी फेरे
घोंसले से घर के छतों तक
माँ लगाती थी फेरे
सिलाई मशीन से रसोई तक
दिनचर्या में दोनों के
नहीं था आराम!

घोंसला बुनते वक़्त कभी-कभी
चुभ जाता कोई नुकीला तिनका
चिड़िया के चोंच में।
माँ की उंगलियाँ भी घायल रहती अक्सर
न जाने कितनी दफ़ा सुइयाँ चुभतीं रोज़
जिसके लहू का निशान
'गुलाब' बन जाता मेरे सफेद पैरहन पर
जो नबाबों के गुलिस्ताँ का नहीं होता
एक माँ की संघर्षभूमि पर
खिला गुलाब था वह
जिसे माँ सींचती रही जीवन भर
अपने खून और पसीने से!

चिड़िया सिखाती है बच्चों को
ज़िन्दगी की पहली उड़ान
बन्द रहते हैं कई दफ़ा
नन्हें बच्चों के पर
जिसे खोलती है चिड़िया
अपनी चोंच से।
मुझे भी सिखाया माँ ने उड़ना
अनंत आकाश में
डगमगाया कई बार मैं भी
'आत्मविश्वास'
भरा मेरे अंदर तब माँ ने ही।

विडम्बना!
घोंसले छोड़ जाते हैं बच्चे
बड़े होने के बाद
चिड़िया रह जाती है अकेली।
मैं छोड़ आया हूँ घर
माँ भी है मेरी अकेली।


तारीख: 11.03.2024                                    तारांश









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