ख़त्म होती परम्पराओं के मुहाने पर बैठ मेरा गाँव
अपनी बूढ़ी आँखों से ताकता रहता है अतीत और महसूस करता है ख़ुद में पैदा होता एक शहर
मानो खेत में मुरझाती फसलों के बीच लहलहाती खरपतवार
चिढ़ाती रहती है खेत के बंजर होते स्वाभिमान को।
साहित्य मंजरी - sahityamanjari.com