प्रकृति और इंसान

ईश्वर ने रचा इस सृष्टि को
देकर अपने अनेक वरदान
हवा, जल और
अच्छे से अच्छा खान-पान
कहीं उसने फूलों की
बगिया लगायी
कहीं उसने
हरियाली के चादर बिछाएं
कहीं झरने बहाएं
तो कहीं मेघ बरसाएं
अनेक जीवों का किया उसने निर्माण
फूंक कर उनके भीतर प्राण
एक बुद्धिजीवी भी उसने रचा
इंसान का नाम उसे दिया
फिर उसने अपनी
माया से बनाया
प्रकृति रूपी माँ के
स्नेह की शीतल छाया
प्रकृति ने अपनी ममता
अपना वात्सल्य लुटाया
सब पर इक समान
पर इंसान ने
कर दिया उसे परेशान
उस बुद्धिजीवी में
असंतोष बचा था
इसलिए उसने
बहुत कुछ रचा था
उसके असंतोष की खोज ने
उत्पन्न किए कई आविष्कार
डाल कर उसमें
अपने सुयोग्य विचार
इन सब प्रक्रिया में
असहज हो उठी प्रकृति
मिटती चली गई उसकी छवि
मौन प्रकृति ने बहुत कुछ देखा
हस्तक्षेप उसका चुपचाप सहा
जब टूट चुका उसके
सहनशीलता का बांध
दे दिया उसने उसे अभिशाप
तेरे ही आविष्कारों से
होगा तेरा विनाश
अगर किया है तूने मेरा सर्वनाश
आज इंसान अपनी खोज में
खुद को गुम कर चुका है
प्रकृति की मार से
वह भी असहज हो चुका है
यदि अपनी खोज में
समझ आ जाएं उसे
प्रकृति की ममता
तो कभी खत्म न हो
उसकी क्षमता
अपने आविष्कारों में भी
यदि वह प्रकृति को
जीवंत रखेगा
तो कभी नहीं
नई परेशानियों से
उसे लड़ना पड़ेगा।


तारीख: 28.02.2024                                    वंदना अग्रवाल निराली









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