प्रकृति का संदेश

पूरी पृथ्वी स्थिर है, क्या अजीब मंजर है,

प्रकृति भी पूरे रौ में चुभो रही खंजर है ।

कैसा यह विनाश का हो रहा तांडव है,

रास्ते वीरान, पशु-पक्षी हैरान, जमीन भी अब बंजर है ।

 

आज सब कैद हैं अपने ही बनाए मकानों में,

कितनी महँगी है ज़िंदगी, यह मिलती नहीं दुकानों में ।

ये कैसी छाई वीरानी है और कैसी है ये मदहोशी,

सबके चेहरे सुर्ख है और पसरी है अजीब सी खामोशी ।

 

कल तक सारे लोग जो मौज में थे,

पता नहीं ! क्यों आज वही सब खौफ में है ।

क्या शूल बनके चुभ रही है हवा,

या प्रकृति दे रही है हम सभी को सजा ।

 

समस्त मानव जाति है तबाह और परेशान,

आज सबकी पड़ गयी है संकट में जान ।

जितनी निर्ममता से किया था दोहन प्रकृति का,

उतनी ही जल्दी संदेशा आया विपत्ति का ।

 

यही तो वक़्त है संभलने का,

कदम मिला कर प्रकृति संग चलने का ।

शांत बैठो, धैर्य रखो, बिगड़े को सुधरने दो,

वक़्त दो, साथ दो, प्रकृति को फिर से सँवरने दो ।

 

हरियाली का मान रखो, स्वयं को इंसान बना डालो

स्वच्छता का हाथ थाम, बीमारी को मिटा डालो ।

होगी सतर्कता, सामंजस्य की नयी दृष्टि,

तभी खुशी के गीत फिर से गाएगी प्रकृति।


तारीख: 01.03.2024                                    तरुण आनंद









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