गीता नर नारायण

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हरि अनंत हरि कथा अनंता।।6।।

अविभक्तम् च भूतेषू विभक्तमिव च स्थितम्। भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयम् ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।। 
अर्थात् वे परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित हैं। वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले, उनका भरण पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं।  

आज गीता जयन्ती पर हम सब विचार करते हैं श्री मद्भग्वत्  गीता के महात्म्य के बारे में

आइए,आज के दिन हम समझने का प्रयास करें कि सम्पूर्ण गीता का संदेश क्या है।

हम में से बहुत लोगों के लिए गीता का अर्थ ...भगवान कृष्ण के द्वारा अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहे गए  वाक्यों का संग्रह मात्र है 

परन्तु क्या  shree कृष्ण स्वयं युद्ध के लिए इतने तत्पर हैं कि युद्ध से विमुख होकर शान्ति या सन्यास  की  बात करने वाले अर्जुन को युद्ध भूमि  के बीचोंबीच उपदेश देकर युद्ध के लिए प्रेरित कर देते हैं।

यदि ऐसा है तो गीता विश्व में सबसे अधिक प्रचलित क्यों है?  क्यों इसे सम्पूर्ण वेदों का सार माना जाता है?

गीता ही तो नर को नारायण से जोड़ने का तार है।

गीता में भगवान अपने भक्त को MEMORY के एक concept- BIOLOGICAL MEMORY, CELL MEMORY or DNA MEMORY के बारे में  समझाने का प्रयास करते हैं। भगवान कृष्ण स्वयं नारायण है तो अर्जुन है नर। 

अर्जुन का अर्थ है सभी मानव या 
सभी नर नारी।

नारायण अर्थात् जो नीर या जल  के रूप में , जल में ही व्याप्त हैं, इस सृष्टि  के सम्पूर्ण सागर - क्षीरसागर में वास करते हैं। 
और हम सब उसी नारायण की, उसी क्षीरसागर की केवल एक बूंद हैं, 

इस संसार के समस्त प्राणी एकजुट  होकर भी उस नारायण का केवल एक छोटा सा अंश हैं।

मार्यकण्डेय पुराण के अनुसार, "यस्मादणुतरम् नास्ति यस्मान्नास्ति बृहत्तरम्। येन विश्वमिदम् व्याप्तमजेन जगदादिना।।"  

अर्थात् जिससे अधिक सूक्ष्म और विशाल कोई वस्तु नहीं है और जगत के आदि कारण, अजन्मा होते हुए भी जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है।

भगवान, अर्जुन को यही स्मरण कराते हैं कि सभी आत्मा परमात्मा का ही अंश हैं और परमात्मा में ही विलीन हो जाती हैं। 

सकारात्मकता यानी positivity का अर्थ है  परमात्मा के निकट जाना जैसे अर्जुन और 

नकारात्मकता यानी  negativity का अर्थ है सामने होते हुए भी परमात्मा से बहुत दूर होना जैसे दुर्योधन। 

आवश्यक नहीं की हम सदैव सही हों, फिर भी हमें निष्काम कर्म करते हुए मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए। जिस प्रकार गलत मार्ग पर जाते हुए अर्जुन को स्वयं कृष्ण गीता उपदेश दे कर सही मार्ग पर ले आते हैं। जैसे ही अर्जुन कहते हैं "शिष्यस्तेऽहं" और भगवान् की शरण में आते हैं, भक्त वत्सल नारायण अपने सखा को ज्ञान रूपी सारा भण्डार दे देते हैं।  
उसी प्रकार यदि हम स्वयं को कृष्ण के हाथ में सौंप दें तो निश्चित ही हम सुमार्ग की ओर अग्रसर होंगे  आवश्कता है  तो केवल विश्वास की। 

भगवान स्पष्ट रूप से यह संदेश दे रहे हैं कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए मृत्यु आवश्यक नहीं है। मोक्ष तो केवल मन की स्थिति है। केवल दृष्टि का अन्तर है। खिन्न मन से तो अपने ही परिवार में अपना पराया हो जाता है और प्रसन्न मन से वसुधैव कुटुम्बकम्।।

भगवान कहते हैं 
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगी विशिष्यते।। 
अर्थात् मोक्ष के लिए सब कुछ त्याग देना या अपना कर्म करना दोनों ही श्रेयस्कर हैं लेकिन इन दोनों में भी कर्म करते हुए आगे बढ़ना ही उचित है। इसीलिए तो ये जीवन कर्मभूमि यानी कार्य करने का क्षेत्र है। 

सन्यास अर्थात् सम + आस। सन्यास वह है जब हम सभी स्थिति में सम हो जाएं। मन की ऐसी स्थिति आने पर हमारे और परमात्मा के बीच कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा क्योंकि वैकुण्ठ तो हमारे अन्दर ही है। इसको बाहर नहीं ढूंढ सकते। 

सम्पूर्ण गीता में भगवान श्री कृष्ण यही सारा ज्ञान हम अर्जुन रूपी मानव को देते हैं। 

गीता का ज्ञान सुनाने के बाद संजय  धृतराष्ट्र अर्थात् वह बुद्धि जो सही निर्णय नहीं ले सकती उससे कहते हैं कि

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिमम।। अर्थात् हे राजन! जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, मेरी मति के अनुसार वहीं पर विजय, विभूति, और अचल नीति है।

दूरदर्शी संजय कोई और नहीं  वरन हमारी अपनी निर्णय लेने की क्षमता का ही एक रूप है। 
इसीलिए हमें भी अपनी biological memory को ध्यान में रखते हुए यह समझना है कि नर और नारायण एक ही हैं। अपने रथ का संचालन ठाकुर को देकर निश्चिंत होकर आगे बढ़ो। 
।।  जै श्री कृष्णा ।। 


तारीख: 04.02.2024                                    dr गुंजन सर्राफ









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