ऐ औरत
तू क्यूँ ना ख़ुद पर नाज़ कर
तू पतंग नहीं पंछी है
जा अपनी परवाज़ पर
मैंने तुझे पीटा है अपने हाथों से
जिनको तूने सहलाया है
तेरा जिस्म सारा ज़ख़्मी है
जिससे मैंने मन बहलाया है
तेरी चीख़ें भी मुझे सुनाई ना दी
और तू आ गयी मेरी एक आवाज़ पर
ऐ औरत
तू क्यूँ ना ख़ुद पर नाज़ कर
तुझे बेलन दिया मैंने कलम नहीं
ख़ुदगर्ज़ हूँ मैं और इसकी भी शर्म नहीं
रसोई तेरी बिस्तर मैंने लिया
व्रत तेरे असर मैंने लिया
तू क्या करे क्या पहने कहाँ और कब जाए
ये भी तय मैंने किया
क्यूँ मंज़ूर है तुझे सब
तू कभी तो ऐतराज़ कर
ऐ औरत
तू क्यूँ ना ख़ुद पर नाज़ कर
तू पतंग नहीं पंछी है
जा अपनी परवाज़ पर...