हर आदमी अपनी सबसे प्यारी चीज़ के दैनिक दर्शन, दुनिया को करवाना चाहता है और बिना किसी "अरेस्ट वारंट" के वाहवाही को गिरफ्तार करना चाहता है। वैसे एक देश के तौर पर हमारे पास दिखाने और छुपाने के लिए काफ़ी चीज़े है लेकिन इन सबके इतर आत्महीनता की प्रदर्शनी हम सबसे ज़्यादा लगाते है। आत्महीनता वो अंतर्वस्त्र है जिसे दिखाकर हम भारतीय सबसे ज़्यादा एक्सपोज़ करते है।आत्महीनता की पिच पर हम पारी घोषित किये बिना लगातार बैटिंग कर सकते है और इसके लिए हमें पिच क्यूरेटर की मदद की भी ज़रूरत नहीं होती है। आत्महीनता हमारे लिए लक्स-कोजी की तरह आरामदायक है और हम हमेशा अपना लक पहन के चलते और रेंगते है। आत्महीन देश और उसके नागरिक बहुत आत्मसंतोषी प्रवृति के पाए जाते है उनकी हसरते स्वाभिमान रेखा के काफी नीचे आराम से जीवन-यापन कर लेती है। आत्महीनता का हाज़मा, इज़्ज़त का राजमा खाने की इज़ाज़त नहीं देता है लेकिन वो दूसरो के द्वारा दरियादिली दिखाकर फ़ेंकी गई सम्मान और तारीफ की झूठन को बड़े अधिकारपूर्वक हड़प कर लेता है।
आत्महीनता ज़्यादा इज़्ज़त अफोर्ड नहीं कर सकती है, उसके फेफड़े आत्मसम्मान की ऑक्सीजन को अपने आगोश लेने से कतराते है। आत्महीनता के बूंटे ज़ब कानो में सजने लगते है तो स्वाभिमान का नाम सुनते ही अपराधबोध महसूस होने लगता है। इसीलिए ज़ब देश का एक मुख्यमंत्री अमेरिका जाकर अपने प्रदेश की सड़को को बेहतर बताता है तो हम इसे स्वयंभू राष्ट्र के तौर पर आत्महीनता के संवैधानिक अधिकार पर आघात समझते है और मुख्यमंत्री के चेहरे पर उन्ही के राज्य की सड़को की कालिख पोत देते है ताकि भविष्य में कोई चुना हुआ जनप्रतिनिधि इस तरीके की घटिया हरकत कर सात समुन्दर पार देश का नाम मिट्टी में मिलाने की हिम्मत नहीं कर सके। ज़ब तक अमेरिका खुद ना कह दे की हमारी सड़के बेहतर है तब तक हम अपने आपको बेहतर मानने की हिमाकत कैसे कर सकते है? यह हमारी आत्महीनता की गर्वीली विरासत और संस्कृति के विरुद्ध है और हर मंच से ऐसे दुस्साहस के खिलाफ आवाज़ बैठे गलो से भी उठनी चाहिए।
देश के आकाओ को समझना होगा की, हम अच्छे और बेहतर है या नहीं, यह हम स्वयं के विवेक से निर्धारित करने वाले कौन होते है। यह स्वतंत्रता सदियो की गुलामी के बाद हम खो चुके है, जिसका रिकॉर्ड "खोया-पाया" विभाग के पास भी नहीं है। हमारा चप्पा चप्पा विदेशी ठप्पा पाने के लिए तरसता रहता है। खुद के अप्रूवल के लिए बाहरी मान्यता हमारे लिए संजीवनी की तरह होती है जो हमारे अस्तित्व को "दूधो नहाओ और पूतो फलो" का आशीर्वाद देती है
योग हो या आयुर्वेद ज़ब तक पश्चिमी देशो ने इनको मान्यता देकर धन्य नहीं किया तब तक ये विधाए केवल हमारी हिकारत का आतिथ्य स्वीकार करती रही, हमने कभी भी इनको महानता की शाल ओढ़ाकर और अपनत्व का श्रीफल देकर इनका सत्कार समारोह नहीं किया। बॉलीवुड की कोई फ़िल्म कितने भी करोड़ की जेब क्यों ना काट ले, हमारे कान पर ज़ू या जेब पर डायनासोर नहीं रेंगता है। लेकिन ज़ब कोई आस्कर में नामांकित फ़िल्म हमारी गरीबी का वैश्विक चित्रण कर दे तो हमारे वही रोंगटे खड़े हो जाते है जो सिनेमा हॉल में 52 सेकंड के राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने से मना कर देते है।
हमारी अर्थव्यवस्था पटरी पर है या घुटनो पर, इसकी सूचना आत्महत्या करते हमारे किसान नहीं बल्कि विश्वबैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की रोषपूर्ण रैंकिंग देती है। देश में रहते हुए हम किसी का मूल्य पहचाने या ना पहचाने लेकिन गूगल या माइक्रोसॉफ्ट का CEO किसी भारतीय के बनने पर अपनी कॉलर और आवाज़ ऊँची करते हुए उसको भारतीय मूल का बताना नहीं भूलते है। भले ही हर रोज़ ,सूर्य पूर्व से उदय होकर पश्चिम में अस्त हो जाता हो, लेकिन हमारे लिए सम्मान का सूर्य पश्चिम से ही उदित होता है।