एक मोड़ पर

समय गतिशील एवं परिवर्तनशील है साहब। कब प्रतीक्षा करता है ये?, किसी के लिये। आज,अभी और ये पल ही तो हमारा है। बाकी तो यादें व सपने हैं। बीत गया तो यादें एवं आने वाला हो तो सपनें ।दोनों ही  पानी के बुलबुलें।और हम खो देते हैं इस समय को जो आज हमारा है। यूँ ही कुटिलताओं में ,राग-द्वेष में,निंदा-स्तुति में और लड़ने-झगड़ने में,और फिर रूठकर  चले जाया करते हैं दूर अपनों से। हम क्यों करते हैं ऐसा?

EK hindi kahani sahitya manjari


         शब्द ही तो हर भी व हरि भी।ये शब्द जीवन देते भी हैं और जीवन लेते भी। पर इतना तो तय  है साहिब कि ये शब्द जिस पर प्रयोग होते हैं ,ना उसको छोड़ते है और ना ही उसको ,जो इसका प्रयोग करता है। शब्दों का प्रयोग हमेशा होंठ ही करें ये जरूरी नही कभी-कभी तो आँखे भी शब्दों का उपयोग कर लेती हैं और कभी-कभी मन व धड़कन भी ।


         जैसा मैंने पहले भी कहा था,  कि समय परिवर्तनशील हैं व गतिशील भी। ये कब आता है?कब जाता है? पता ही नही चलता ।परन्तु इतना जरूर है कि ये अपने साथ बहुत कुछ ले भी जाता है और हमें बहुत कुछ दे भी जाता है यादों के रूप में ये  दे जाता हैं ,या तो आँसू या फिर मुस्कान या फिर एक अहसास व पश्चाताप कि काश हम जी लेते वो पल ,पकड़ लेते उन पलों को तितलियों की तरह व सहेज लेते इन्हें अपने पास हमेशा हमेशा के लिये अपनी बंद मुट्ठियों में अच्छी या बुरी यादों के रूप में।


       “ एक मोड़ पर “! मेरी ये कृति भी आधारित है बीते हुऐ समय की कुछ यादों पर।यादें भी हवा के उस झोंके की तरह होती हैं ,जो मन को कुछ समय के लिये ही सही प्रफुल्लित कर देती है,और लेजाती हैं कल्पनाओं के शीतल छाँव में यथार्थ की तपिश से दूर। जहाँ मन आनन्द की अनुभूति करता है। ऐसी ही एक स्मृति जो मन मस्तिष्क में रच बस गयी हैं हमेशा के लिऐ ,जो शुरू भी हुई एक मोड़ पर और खत्म भी हुई एक मोड़ पर।


       आइये चलते हैं आप और हम अतीत के उस सफर में जिसकी शुरूआत हुई थी आज से करीब बीस साल पहले हरी-भरी वादियों से गुजरती हुई सर्पाकार सड़क पर हरी-भरी पर्वत श्रंखलाऐं मन को लुभा रहीं थी हरे-भरे वृक्ष जैसे बाहें फैलाकर हमारा स्वागत कर रही थीऔर सड़क के अनगिनत  मोड़ों से गुजरते हुऐ मैं अपने एक दोस्त जिसका, नाम अमित था के साथ घुमने के लिये देहरादून से मंसूरी जा रहा था। जून का महिना आसमाँन बादलों से आच्छादित था। पर्वत और बादलों का मिलन, बड़ा ही मनोरम दृश्य था । बस देहरादून से विदा  लेकर मंसूरी से मिलने के लिये तेजी से आगे को बढ़ रही थी। मैं और अमित बस की आगे की सीट पर बैठे थे। हम लोगो की बातें चल रही थी ।एक मोड़ पर अचानक बस एकदम से रूकी। हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से स्वयं को संभाला,क्योंकि झटका जो लगा था। एक कार जो बस को ओवरटेक कर रही थी, अचानक बस के सामने आ गई । किस्मत सबकी अच्छी थी कि कार  हल्की सी ही बस से टकराई। हम बस से नीचे उतरे और कार की ओर बढ़े। कार को एक पच्चीस-तीस साल की कोई युवती चला रही थी। हमने पहले उसे कार से बाहर निकाला फिर पास में ही स्थित एक छोटी दुकान की बेंच पर बैठाया। मैं दुकान से पानी की बोतल ले आया व उसके घावों को पानी से धोया,भगवान का शुक्र था कि चोट ज्यादा नही लगी थी।

पहले उसने स्वयं को संभाला,फिर अपनी गाड़ी को देखा जो बाहर से थोड़ी सी खरोंच खायी हुई थी। अमित ने गाड़ी को चैक किया और गाड़ी स्टार्ट हो गयी। हमने उसको पानी पीने को दिया। अब वह थोड़ी सी आराम महसूस कर रही थी। हम बस की ओर जाने के लिये ज्यूँ ही मुड़े,तो अचानक पीछे से आवाज आई  “ऐक्सक्यूज मी” हमने पीछे मुड़कर के देखा। तो वो बोली “मैं भी मंसुरी ही जा रही हूँ,परन्तु  मुझे अभी कार चलाने में घबराहट महसूस हो रही है।यदि आप में से कोई एक मेरे साथ मंसूरी तक चल सके तो मैं आपका ये उपकार उम्र-भर याद रखूँगी। सब एक-दूसरे को देखने लगे।वह सबों को आशा भरी नजरों से देख रही थी। जब हर नजर में उसको निराशा दिखाई देने लगी तो उसने अंत में हमारी ओर देखा। मैंने अमित की तरफ देखा । अमित और मैंने ये निश्चय किया कि हमें उसकी सहायता करनी चाहिये। मैंने अमित से कहा कि तू उस लड़की के साथ कार में चले जाये और मैं बस में चला जाता हूँ। मैंने उससे कहा कि मैं उसे यानि अमित को मंसूरी में मिल जाऊँगा।और यह कहकर मैं बस की ओर जाने लगा और अमित उस लड़की के साथ कार में, परन्तु उसने अमित के साथ जाने से मना कर दिया और अमित की जगह मेरे साथ जाने की इच्छा  सब के सामने जता दी। हालांकि ये सब कुछ तो मेरी भी समझ से परे था, कि उसने ऐसा क्यों किया? परन्तु स्थिति को भाँपते हुऐ मैने भी लड़की के साथ कार में जाने की अपनी स्वीकृति दे दी। इस तरह अमित तो बस में चला गया और मैं उस युवती के साथ कार में चल दिया मंसूरी के लिऐ। 
         मैं कार की  पिछली सीट में बैठकर चुपचाप खिड़की के बाहर पहाड़ों की खूबसूरती को निहार रहा था।हल्की-हल्की बूँदाबांदी शुरू होने लगी थी। ठंड सी महसूस हो रही थी ।मैं सोच रहा था कि काश थोड़ी देर रूक कर थोड़ी-थोड़ी चाय पी लेते।थोड़ी ठंड से राहत तो मिलती।    अचानक शहद सी घुलती आवाज मेरे कानों में पड़ी “चाय पियगें आप”? मैंने कहा “जी ये तो जैसे आपने मेरे मन की बात छीन ली।“ “नेकी और पूछ-पूछ”। कार को एक किनारे पर खड़ी कर,हम एक दुकान की ओर बढ़ने लगें तो वो अचानक लड़खड़ाई तो मैंने उसका हाथ थामते हुऐ कहा “संभल कर” वो भी मेरा हाथ थामते हुऐ मुस्कुराई, आँखे एक-दूसरे से टकरा करके स्थिर हो गयी उसका चेहरा, आकर्षक,नीली आँखें, गोरा रंग,मधुमय मुस्कान मानो कोई परी धरती पर उतर आई हो,हम दोंनो एक-दूसरे को अपलक देखते रहे।


खैर वो मेरा सहारा ले कर आगे बढ़ी। उसके पैर में हल्की सी तकलीफ थी शायद। मेरा सहारा लेते हुऐ वो और मैं दुकान के भीतर चले गयें। 
दुकान पुराने समय की थी ।लाल टीन की छत, मिट्टी व पत्थर की दिवारें व दिवारों में कुछ तस्वीरें लगी हुई थी। लकड़ी की कुछ बेंचे करीने से लगी हुई थी।
हम दोनों भी एक बेंच में बैठ गये और दो चाय का कह कर हम चाय की प्रतीक्षा करने लगे।
 वो मुझे अनवरत देख कर मुस्कुराये जा रही थी। और मैं उसके यूँ मुस्कुराने से झेंप रहा था। वो मुस्कुराते हुऐ बोली “बिल्कुल  भी नही बदला बबलू तू”।“जैसा बचपन में था अब भी वैसा ही है”। मैं अब तक कुछ समझ नही पा रहा था। एक तो मेरे बचपन का नाम जो काफी कम लोग जानते हैं इसको कैसे पता, दूसरा ‘तू’ का सम्बोधन वो भी पहली मुलाकात और जब कोई परिचय भी नही।
   आश्चर्य व विस्मय मिश्रित भरे मेरे चेहरे को देख वह शरारतपूर्ण निगाहों से मुझे देखकर खिलखिलाने लगी।
  मैंने आश्चर्यचकित होते हुऐ जैसे ही कुछ कहना चाहा तभी वह बोली,” चौंक मत , मैं प्रत्युषा,जिसे तू पतरु कहकर चिढ़ाता था बचपन में”।
“अरे पतरू तू”। मैं आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ चिल्लाया । हम दोनों ही लगभग पगला से गये थे थोड़ी देर के लिये। हमदोनो पहले जी भर के गले मिले। फिर थोड़ा सा सामान्य हुऐ।


    वो पल भी बड़ा अजीब  होता है, जब आपका बचपन पुनः एक बार फिर से लौट आता  हैं आपके सामनें कभी यादों के रूप में कभी बचपन के बिछुड़े हुऐ संगी के रूप में और खास तौर पर वो संगी ,जो स्वर्ग से उतरी कोई अप्सरा हो, तो  फिर आपको   कहाँ किसी की सुध। ये ही स्थिति इस समय हम दोनों की भी थी, हम भीड़ के बीच बिल्कुल अकेले एक-दूसरे के साथ। भूल गये कि हमारे अगल-बगल में भी लोग हैं ।


  चाय वाले की आवाज से हम वापस वर्तमान में आये और सामान्य हुऐ आस-पास के लोग भी हम पर हँस रहे थे ,परन्तु वो भी सामान्य हो गये ।समझ जो गये थे कि थोड़ी देर को ही सही बच्चें जो बन गये थें । 
  तब तक चाय भी आ गई थी।चाय की चुस्की का आनन्द लेते हुऐ, तब मैंने प्रत्युषा से पूछा,”एक बात बता तूनें मुझे पहचाना कैसे”?”
 “तू मेरा बचपन का प्यार जो है तो तूझे पहचानूँगी कैसे नही”। उसने चुटकी काटते हुऐ कहा”।फिर हँसते हुऐ बोली, “अरे पगले अमित ने मुझे तेरे बारे में बताया”।मैं चौंका चाय हाथ से गिरते-गिरते बची और चौंकते हुऐ जोर से “क्या?” 
 प्रत्युषा बोली ,” हाँ अमित ने”।
“अमित ने”!मैं लगभग चौंकते हुऐ बोला “मतलब अमित और तू एक दूसरे को जानते हो”?
प्रत्युषा बोली “हाँ अमित और मैं एक साथ  स्कूल और काँलेज में साथ पढ़े हुऐ है। “   
     “एक दिन अमित और मेरे बीच ऐसे ही काँलेज में बातचीत चल रही थी । तब मैंने ही अमित को  अपने बचपन के बारे में   बता रही थी उसमें तेरी भी चर्चा  निकली “।
         “मेरी चर्चा” मैं फिर बोला  प्रत्युषा बोली “हाँ असल में अमित मुझे प्रपोज करना चाह रहा था तो मैंने ही उसको बताया कि मैं बचपन से ही एक लड़के से प्यार करती आई हूँ।“  “अमित को मेरे बारे में जानने की जिज्ञासा हुई तब मैंने  अमित को अपने बचपन के बारे में बताया, जिसमें मैंने उसको बताया कि उसका नाम बबलू था वैसे उसके स्कूल का नाम हेमन्त था हेमन्त पाण्डें ।तब अमित बोला मेरे एक मित्र का नाम भी हेमन्त पाण्डे है मैं ज्यादा तो उसके बारे में नही जानता पर हाँ बीच-बीच में कभी-कभार वो अल्मोड़ा के बारे में बात जरूर करता है। खासतौर पर अल्मोड़ा में रहने वाली अपनी बचपन की दोस्त के बारे में पर उसने कभी उसका नाम नही बताया। फिर मैंने उससे तेरे बारे में पूरी जानकारी ली जैसे बाबूजी का नाम ,माँ के बारे में पूछा भाई-बहनों के बारे में पूछा  फिर उसने तेरी फोटो दिखाई।उसके बाद मैंने घर जाकर तेरा फेशबुक प्रोफाईल चैक किया उसमें परिवार की फोटो से मैंने तूझे ढूँढ लिया था फिर तेरे बारे अमित को बताया कि तू वही बबलू है। अमित ने ही मुझे बताया था कि तू अगले महिने देहरादून आने वाला है। और आज तुम लोग मंसूरी घुमने बस से सूबह निकलने वाले हो और बस में बैठकर अमित ने ही मुझे बस की जानकारी व कहाँ पहूँचें हैं ये पूरा विवरण दे दिया था मैं कार लेकर मंसूरी को निकली और एक मोड़ पर कार को तुम लोगों की बस से टकरा दिया हल्की सी चोट थी तुम लोग बस की ओर बढ़ रहे थे तभी मैंने सहायता की गुहार की और तुझे अपनी कार में बैठा लिया।और इसतरह आज मैं और तू इस जगह मिले हैं।
    यहाँ प्रत्युषा की बात पूरी हुई,वहाँ हमारी  चाय भी पूरी हुई। फिर हम आगे की यात्रा पर निकलने के लिये अपनी कार की ओर बढ़ चले। बारिश भी थोड़ी सी हल्की हो गयी थी। 
 मुझे अब बचपन का वो शहर अल्मोड़ा,अल्मोड़ा का वो मुहल्ला,वो आगन सब याद आने लगा। मेरे मुहल्ले में प्रत्युषा जब पहली बार रहने को आई थी।सफेद व लाल रंग का फ्राँक पहने हुए गोरा रंग। अपने मम्मी व पापा के साथ। मुझे ठीक से तो याद नही कि ये लोग आये कहाँ से थे । मैं और प्रत्युषा एक साथ खेलते ,स्कूल जाते,साथ होमवर्क करते,।  साथ-साथ खूब सारी मस्तियाँ भी करते।अगर मुझे किसी रिश्तेदार के वहाँ एक-दो दिन के लिये जाना पड़ता ईजा के साथ तो वो उदास हो जाती ।इसी तरह से कभी वो बाहर जाती तो मेरा मन नही लगता ।हमारी दिन-रातें मानों हवा की तरह उड़ रहे थे। खुब मस्तियाँ, लड़ना-झगड़ना।उसके आने के बाद हम दोनों ही एक दूसरे के दोस्त बन गये थे  हम दोनों का हमदोनों के अलावा हमारा तीसरा कोई दोस्त नही था। मुहल्ले वाले हमें चिढ़ाते शर्म नही आती लड़का होकर लड़की के साथ रहता है या शर्म नही आती लड़की होकर लड़के के साथ खेलती है। हम कहाँ परवाह करने वाले किसी की। इस तरह हम लोगों ने पाँच साल बड़े ही ही सुनहरे व यादगार बिताये, कई खट्टी मीठी यादों के साथ।  हम साथ-साथ पतंग उड़ातें,कभी कंचे खेलते,कभी आइसपाइस खेलते,कभी नींबू सानके खाते ,होली में साथ चंदा मागंते,फिर होली के गीत गाते और मिलकर होली खेलते। अल्मोड़ा में जाघनदेवी की रामलीला देखने के लिये पूरे मौहल्ले में घुम-घुमकर सबों को इकट्ठा करना।क्या-क्या नही करते थे हम ।इन सारी यादों को अपने मन मस्तिष्क में सहेज कर नौ साल की अवस्था में अपने परिवार के साथ अल्मोड़ा को हमेशा के लिये विदा कहकर हम हल्द्वानी आ गये। मैंने प्रत्युषा को अंतिम बार तब देखा था,जब हम लोग हल्द्वानी के लिऐ बस में बैठ रहे थें और वो अपनी मम्मी व पापा के साथ स्टेशन तक छोड़ने आई थी।उसके व मेरे दोनों ही के आँखों में आसुओं की अविरल धारा बह रही थी ।बस चलने लगी थी धीरे-धीरे हम भी हमेशा के लिऐ बिछुड़ रहे थे हम तब तक एक-दूसरे को देखे जा रहे थेजब तक बस आँखों से ओझल ना हो गयी, और फिर एक मोड़ पर बस भी मुड़ गयी और प्रत्युषा भी मुझसे हमेशा-हमेशा के लिऐ बिछुड़ गयी। 
     मैंने हल्द्वानी में अपनी शिक्षा पूरी की और नौकरी के लिऐ बैगलूर चले गया था ।आज अमित के ही बुलावे पर मैं देहरादून आया था।हालांकि प्रत्युषा ना कभी मेरे दिल से गयी ना ही मष्तिस्क से वो हमेशा मैरे ही साथ रहती मेरी यादों में और मेरी साँसों में। पर वो इस तरह से मुझे मिलेगी ये मैने कभी सोचा ही ना था। वो भी एक मोड़ पर ।एक मोड़ ही हम बिछुड़े थे और एक मोड़ पर ही मिले भी।
          अचानक एक झटका लगा मुझे,मैं वापस स्मृतियों से वर्तमान में वापस आ गया।प्रत्युषा जोर से हँस पड़ी और मेरी ओर देखते हुऐ बोली “कहाँ खो गया था तू बबलू”? मैंने कहा,” प्रत्यु बचपन मे ही वापस अल्मोड़ा चले गया था जहाँ तू थी मैं था और थी हमारी मीठी यादें।फिर मुझे तेरा वह चेहरा याद आया जो अंतिम बार मैंने देखा था ।जो दुःखी  था उदास था सच कहूँ मैं उस दिन हल्द्वानी आया जरूर था।लेकिन अपने आप को तेरे पास छोड़कर। मन हमेशा तुझे ही तलाशता हर चेहरे में ,फिर मैं ये सोचकर मन को बहलाता कि पगले अब प्रत्युषा बड़ी हो गयी होगी उसकी अपनी दुनिया होगी ,अपने दोस्त होंगे अब कहाँ याद करती होगी तूझे।अब तूझे जीना सीखना होगा अकेले ,उसके बिना अपूर्णता के साथ। पर तू मिलेगी अचानक इस तरह से एक मोड़ पर ये सोचकर मैं भगवान से मन ही मन ये प्रार्थना कर रहा था कि काश ये पल यही थम जाऐ इसी मोड़ पर हमेशा हमेशा के लिऐ ताकि तूझे फिर ना खोना पड़े किसी एक मोड़ पर।“
   प्रत्युषा बोली,”नही बबलू बहुत उम्र गुजार दी ,जिन्दगी की तेरी यादों में और तूने भी मेरी प्रतीक्षा में एक दूसरे के बिना। अब मिले हैं हम हमेशा के लिये जिन्दगी की एक मोड़ पर।
        इस तरह प्रत्युषा और मैं चल दिये जिन्दगी की नई राह में नई शुरूआत के लिऐ।  
परन्तु कहते हैं ना कि मिलन भी है तो बिछोह भी। सब कुछ हमारी इच्छानुसार हो ऐसा कभी हुआ है क्या? नियती बड़ी ही क्रुर होती है। हम मंसूरी भी पहूँच गये ।वो फिर मुड़ गयी एक मोड़ पर इस वादे के साथ कि हम फिर मिलेंगे ।
  मैं फिर कई बार उस सड़क से गुजरता हुआ अमित के साथ ही देहरादून से मंसूरी को निकलता था इस विश्वास से कि वो फिर मिलेगी ,परन्तु वो नही मिली आज भी जब-जब हम उस सड़क से गुजरते हैं जैसे ही वो मोड़ आता है। भेरी उत्सुकता बड़ जाती हैं दिल भी जोरों से धड़कने लगता है ये सोचकर कि फिर कोई कार आयेगी बस से टकरायेगी और अचानक ही प्रत्युषा मिल जायेगी ।अब ना ही अमित को ही उसकी जानकारी है ना ही मूझे हम मिले भी थे एक मोड़ पर और बिछुड़े भी एक मोड़ पर।
          
 


तारीख: 05.02.2024                                    हिमांशु पाठक









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