फुरसत के पल

कल से लॉक डाउन है. खूब मजे से सोऊंगा. सबसे पहले अलार्म तो बंद कर दूँ, मुस्कुराते हुए राजेश अलार्म बंद करके सो गया. सुबह हल्की सी नींद खुली तो याद आया आज तो ऑफिस जाना नहीं है मन बच्चों की तरह प्रफुल्लित हो गया जैसे स्कूल से छुट्टी मिल गई हो. पत्नी आशा, तो उठ चुकी है और बच्चे भी सो रहे है मैं भी चादर तान कर सो गया.

थोड़ी देर बाद आशा चाय ले आई और बोली नौ बज चुके है, उठो चाय पीकर फ्रेश हो जाओ, मैं नाश्ता लाती हूँ. मैंने कहा अभी तो मैं सोना चाहता हूँ आराम से उठूंगा पता नहीं ऐसी छुट्टी दोबारा मिलेगी की नहीं. लगभग महीना होने को आया, मैं आराम से 12बजे उठता, नाश्ता करता, टीवी देखता, फिर सो जाता, लंच करता, मोबाइल देखता, दोस्तों से बातें करता. बच्चे कभी-कभी खेलने को कहते, तो मैं बिजी हूँ... कहकर अपना पल्ला झाड़ लेता, फिर डिनर करना, लेट नाईट मूवी देखना और फिर से सो जाना. लॉक डाउन को लगभग महीना होने को आया था.  बस यही दिनचर्या थी मेरी...   अब मैं ऊब चूका था. फुर्सत ही फुर्सत थी मेरे पास पर क्या करूँ...? घर का काम करना मेरी शान के खिलाफ था.

अगले दिन नींद जल्दी खुल गई या समझो नींद आ नहीं रही थी. लगभग 5.15 थे. आशा भी उठ चुकी थी, उसे देखने चला तो वो बालकनी में बैठे सुबह का चाय का आनंद ले रही थी. वैसे मैंने आज तक आशा को कभी सुबह सुबह चाय पीते नहीं देखा या कहो की कभी टाइम ही न मिला हो. ठंडी-ठंडी हवा और कोयल की कूह-कूह मन को लुभा रही थी और आशा भी मस्त हो कर    आनंद ले रही थी, शायद उसे मेरे होने का आभास न था. चाय का कप ख़त्म कर वह पौधों को पानी दे रही थी और कुछ गुनगुना भी रही थी उसका चेहरा सूरज की लालिमा सा मुस्कुरा रहा था.

अरे! तुम इतनी जल्दी उठ गए.. अचानक मुझे वहां देख, वह हैरान हो गई. चाय पियोगे? मैंने 'ना' में सर हिलाया, पर कुछ कहा नहीं.  कुछ बोलकर उसकी मुस्कुराहट  छीनना नहीं चाहता था. वह अभी भी गुनगुना रही थी. शायद रोज़ की भागदौड़ से कुछ फुर्सत के लम्हे बाँट रही थी.

घर की सफाई कर वो नहा कर बाहर आई, गीले रेशमी बाल, माथे पर कुमकुम, मांग में सिन्दूर और कजरारी बड़ी-बड़ी आँखे... आज फुर्सत में उसे निहार रहा था. उसके चेहरे पर असीम शांति पर तेज था. सच में आशा कितनी सुन्दर है... तन से भी और मन से भी मैं सोच ही रहा था... वह फिर मुझे देख कर चौंक गई. उसने पूछा- "कुछ चाहिए?" मैंने, ना कह दिया.

पूरा घर अगरबत्ती की खुशबू से महक रहा था और साथ ही घंटी की मधुर आवाज़ और आशा की मन ही मन बुदबुदाती आरती से चहक रहा था. इतने सालों से आशा की रोज़ की दिनचर्या थी पर मैं सिर्फ अपने में ही खोया हुआ था.

आशा ने बच्चों को बड़े ही प्यार से उठाया. बच्चे भी आशा के साथ मस्ती कर रहे थे. तीनों की हँसी ठिठोली से घर गूँज रहा था और मैं अकेला कोने में खड़ा था या समझो आज से पहले इस तरह का शोर मुझे पसंद ना था.

बच्चों को तैयार कर आशा रसोई में नाश्ता बनाने चली गई. मुझसे भी पूछा-"तुम, अभी नाश्ता करोगे या बाद में.?" मैंने हाँ में उत्तर दिया.रोज़ ही सबकी फरमाइश पूरा करती, सबकी पसंद का खाना बनाती. उसके हाथों में जादू था और खाने में स्वाद ही स्वाद. इसके बावजूद मेने आज तक उसके खाने की खास तारीफ नहीं  की जिसका मुझे अफ़सोस हो  रहा था.

नाश्ता कर थोड़ी देर बच्चों को पढ़ाती, पुराने कपड़ों की उधेरबुन कर उन्हें नया आकर देती, कभी खुद रंगो से खेल पेंटिंग्स बनाती तो कभी बच्चों के साथ रंगीन हो जाती. बच्चों को अपने साथ शामिल कर, घर की बेकार की चीज़ों को नया रूप देती, तो कभी खुद बच्चा बन बच्चों से दोस्ती कर डालती. बच्चों की सेहत का ध्यान के साथ साथ उन्हें खेल खेल में जीवन मूल्यों की शिक्षा देती. कितना कुछ जानती है वो और मुझे उसकी काबिलियत और योग्यता का पता नहीं या शायद मेरा अहम उसे स्वीकार नहीं करता एक प्रतिष्ठित पद पर कार्य करने और ऊँचे वेतन के बावजूद खुद को बौना महसूस कर रहा हूँ.

ना बच्चों को कोई जल्दी थी ना ही आशा को कोई भागदौड़... सभी फुर्सत के पलों को जी रहे है, सभी मस्त है, इन लम्हों को आनंद के साथ जी रहे है. वैसे रोका तो मुझे भी किसी ने नहीं है.. पर शायद मेने ही अपने भीतर "अपने" को रोका हुआ है. बच्चे अपनी परियों की कहानी सुनकर सो गए है और आशा मोबाइल पर गाना सुनते हुए गुनगुना रही है... "दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन ..."

"इन फुर्सत के लम्हों को जीने का यही समय है, ये पल दुबारा नहीं आएंगे.. कल से मैं भी फुर्सत के पलों को अपने परिवार के साथ जीऊँगा". इसी 'आशा' के साथ आँख बंद कर मैं आशा का गुनगुनाना सुनने लगा.

 


तारीख: 20.02.2024                                    मंजरी शर्मा









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है