माँ

तुम्हारे प्यार की किश्तों को,
मैं चूका रहा हूँ अब तक,
पर क़र्ज़ इतना है कि भर नही पाता ।
अक्षम हूँ मैं माँ,
चुकाने में उस 
निःस्वार्थ ममतामयी कर्ज को।
तुम्हे तो ख़ुशी मिल जाती है,
पुकार देता हूँ,
जब मैं माँ कहकर।


पूर्ण होती हो,
मुझे अपने पास देखकर,
और मैं,
महफूज महसूस करता हूँ,
तुम्हारी आँचल में छिपकर।
गिर जाये यदि कोई वज्र भी,
मुझे ताक़त मिलती तुम्हारी गोद में,
टकराने की इच्छा बड़े-से- बड़े,
चट्टान से ।


जब तुम्हारे पास रहता हूँ,
सुनकर तुम्हारी लोरियां,
शायद अभी ऐसी कोई,
औषधी नहीं बनी,
जिसे खाकर मुझे,
वैसी मधुर नींद 
जो तुम्हारे लोरियों ने 
नींद में सुला दिया हो।
पर दुख होता है सुनकर,
बड़े होकर हम अपनी माँ से,
अलग क्यों हो जाते हैं?


तारीख: 20.10.2017                                    धीरेन्द्र नाथ चौबे"सूर्य"









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