दिन के कोलाहल से परे ,शांत शीतल सी सांवरी...
दिनकर परम शत्रु इसका ,कहीं दूर गुफाओं में छिपी...
कब क्षीण पड़े शक्ति शत्रु की ,इसी चाह में - इसी राह में,
गुमसुम सी कहीँ गुम सी, चट्टानों के झरोखों से झांकती...
ये रात...........
सर्व समान नियम प्रकृति का, पक्षपात का कोई प्रश्न नहीं,
शीघ्र ही आभा भास्कर की, धूलि सी धूमिल हुई।
कलरव करता खग-समूह , ना भय सी कोई बात सखी,
पुरवैया का आलिंगन कर, स्वच्छंद विचरण कर रही...
ये रात...........