अपने ही अंदर खत्म मैं हो चली
लेकर अपनी पेटी , रही मैं डटी
दूसरो से तो अलग ही कर लूंगी ,
यही खुद से पल पल कहती रहती।
क्या मालूम था आयेंगे ऐसे रुख,
जो किसी कॉपी में ना सिखाया
कैसे भोगु मैं , सुख एवं दुःख।
मौके आये ,आयी कामयाबियां भी
खुश होने से ज़्यादा लगा भय,
ना दूर हो जाऊ इनसे भी।
अब यही सोचती मैं
अपनी कथा लिखने वाली
क्यों आम नियमों में बह चली,
राह मैं चलते चलते बस
औरों सी मैं हो चली
अपने ही अंदर बस
खत्म मैं हो चली